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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
हजार योजनकी गहराई है । इससे अधिक गहराई कहीं नहीं है । लवण समुद्रमें जंबूद्वीपकी और चोबीस और धातकी द्वीपकी और चौबीस यों कुभोगभूमियोंके अडतालीस द्वीप अन्य भी बने हुये हैं। मागध आदि भी कई द्वीपोंकी रचना है, इत्यादिक करणानुयोग सम्बन्धी सिद्धान्त तो सर्वज्ञ आम्नात शास्त्रों द्वारा या साम्प्रदायिक ऋषियों द्वारा सुना जा रहा है । इस आर्ष सिद्धान्तमें किन्हीं प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे बाधा नहीं उपस्थित होती है । बाधकासम्भवसे अतीन्द्रिय पदार्थोकी भी निर्विवाद, अविसम्वादिनी, सिद्धि हो जाती है।
ननु च पूर्वपूर्वपरिक्षेपिद्वीपसमुद्रप्रकाशकस्तत्र सामर्थ्याजंबूद्वीपपरिक्षेपी लवणोदो ज्ञायते सामान्यत एब । तद्विशेषास्तु कथमनुक्ता इहावसीयंत इति न शंकनीयं, सामान्यगतौ विशेषसद्भावगतेः सामान्यस्य स्वविशेषाविनाभावित्वात् संक्षेपतः सूत्राणां प्रवृत्तेः सूत्रैस्तद्विशेषानभिधानं जंबूद्वीपादिविशेषानाभधानवत् । वार्तिककारादयस्त्वर्थाविरोधेन तद्विशेषान् सूत्रसाम
ाल्लब्धानाचक्षाणा नोत्सूत्रवादितां लभंते ' व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि संदेहादलक्षणम्' इति वचनात् ।
___ यहां किसीका शंका अनुसार आक्षेप है कि इस तृतीय अध्यायके सातवें, आठवें, सूत्र अनुसार पूर्वका परिक्षेप करनेवाले असंख्य द्वीप समुद्रोंका प्रकाश किया जा चुका है, उनमें जंबूद्वीपका परिक्षेप करनेवाला लवणसमुद्र तो सामान्यरूपसे विना कहे सामर्थ्यसे ही जान लिया जाता है । किन्तु उस लवणसमुद्रके पाताल, क्षुद्रपाताल, द्वीप, कुभोगभूमि ये विषेष तो यहां सूत्रोंद्वारा नहीं कहे गये हैं, फिर बिना कहे ही उन विशेषोंका निर्णय कैसे कर लिया जाता है ? बताओ ।ग्रंथकार कहते हैं कि यह शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि सामान्य रूपसे ज्ञप्ति होचुकने पर उसके विशेष अंशोंके सद्भावकी भी परिच्छित्ति होजाती है । कारण कि सामान्य अर्थ अपने विशेष अर्थोके साथ अविनाभाव रखने वाले होते हैं । " निर्विशेषं हि सामान्यम् भवेत् खरविषाणवत्" । कोई मनुष्यसामान्य या घोडा सामान्य अपने उचित विशेषोंसे रीता होकर अकेला अद्यावधि नहीं देखा गया है । जैन सिद्धांतमें पदार्थको सामान्य विशेषात्मक स्वीकार किया गया है । हां, शवोंके संक्षेपसे सूत्रों की प्रवृत्ति होती है । अतः अनेक छोटे छोटे विशेष अर्थोके प्रतिपादक सूत्रों करके श्री उमास्वामी महाराजने लवण समुद्रके उन विशेषोंका कंठोक्त निरूपण उसी प्रकार नहीं किया है, जैसे कि जंबूद्वीपके भद्रसाल, देवारण्य, भूतारण्य, आदि वनों, विजयाध यमकादि, वृषभाचल, गजदंत, वेदाढ्य आदि पर्यतों, या उन्मग्नजला, निमग्नजला, विभंगा आदि नदियों तथा अन्य अन्य शाल्मली वृक्ष, वेदी, पाण्डुक शिला, म्लेच्छ खण्ड, खण्डप्रपातगुहा आदिका सूत्रों द्वारा पृथक् पृथक् निरूपण नहीं किया गया है। अर्थात्-यों सभी विशेषोंका सूत्रों द्वारा निरूपण करने पर मूल सूत्रग्रन्थका अत्यधिक विस्तार होजायगा। फिर टीका. ग्रन्थ किस रोगकी औषधि हैं ? बताओ तो सही । इस तत्त्वार्थसूत्रकी समीचीन टीकाओं या त्रिलोक
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