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________________ तत्वाधचिन्तामणिः ३५९ तो नहीं कहना । क्योंकि जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत आदि क्षेत्र या पर्वत, नदी, कुण्ड, आदिकोंसे संख्यामें दुगुने धातकी खण्ड सम्बन्धी भरत, हिमवान् , गंगा, गंगाकुण्ड, आदि हैं। इस सिद्धान्तका प्रतिपादन करनेके लिये धातकी खण्डका वर्णन सप्रयोजन हैं। दूसरी बात यह है कि " तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेन गृह्यते " इस नीतिके अनुसार जम्बूद्वीप और धातकी खण्डकी वर्णना कर देनेसे लवणसमुद्रका निरूपण तो विना कहे ही पूर्वापर अभिधानकी सामर्थ्यसे ही स्वतः लब्ध हो जाता है । सर्वज्ञ सम्प्रदायका अतिक्रमण नहीं कर आम्नायसे प्राप्त हो रहे आगमों द्वारा या गुरुपरिपाटी द्वारा लवण समुद्रका स्वरूप इस प्रकार समझ लेना चाहिये कि समभूमितलपर एक लाख योजन चौडे जम्बूद्वीपका परिक्षेप करनेवाले कंकण समान लवण समुद्रकी चौडाई दो लाख योजन है। गायोंके जल पीनेके घाट समान क्रमसे गहरा होता हुआ उरलीपार, परली पार दोनों ओरसे पिचानवै हजार योजन तिरछा चलकर हजार योजन गहराई रखता हुआ वज्रा पृथ्वीके ऊपर और चित्रा पृथ्वीके अधस्तलमें लवण समुद्र नीचे दश हजार योजन चौडा हो गया है । " पुण्णदिणे अमबासे सोलक्कारससहस्स जल उदयो, वासं मुहभूमीए दसम सहस्सा य बे लक्खा ” इस गाथा अनुसार चित्राके उपरिम भूमितलसे सदा ग्यारह हजार योजम जलकी ऊंचाईको धारने वाले लवण समुद्रका क्रमसे बढता हुआ जल पूर्णिमाको सोलह हजार योजनतक ऊंचा उठ जाता है । वहां ऊपर जलतलकी चौडाई दस हजार योजन है। अतः लवण समुद्ररूपी कंकणको कहींसे भी काट कर यदि तिरछा देखा जाय तो उसका कटा हुआ आकार सर्वत्र मृदंग सारिखा मिलेगा । लवण समुद्रके अतिरिक्त और किसी भी समुद्रका जल चित्रके समतलसे ऊंचा उठा हुआ नहीं है । हां, वेर्दीक परें उरले परले द्वीपसे पोखरियाके समान क्रमसे तिरछा निम्न होरहा हजार योजन जल उनमें भरा हुआ है । लवण समुद्र सम्बन्धी सूर्य चंद्रमा या इतर ज्योतिष्कमण्डलका लवण जलमें ही संचार होता रहता है मछलियोंके समान देवों और देवविमानों या चैतन्य, चैत्यालय, आदि पदार्थोंको हानि नहीं पहुंचती है । जैसे कि वायु समुद्रमें डूब रहे अस्मदादिकोंको वायु द्वारा कोई क्षति नहीं पहुंच पाती है । ज्योतिष्क विमानोंके कचित् स्थलों में प्रयोगों द्वारा जलका अवरोध भी कर दिया जाता है । समुद्रमें चरने वाले मछली, मगर, आदि जीवोंके शरीरोंमें भी तो जलावरोधके निमित्त विद्यमान हैं । हम लोग भी फैली हुई वायुका यथायोग्य न्यूनाधिक प्रवेश या अवाञ्छनीय अप्रवेश कर लेते हैं। तन्मध्ये दिक्षु पातालानि योजनशतसहस्रावगाहानि, विदिक्षु क्षुद्रपातालानि दशयोमम सहसावमाहानि, तदंतरे क्षुद्रपातालानां योजनसहस्रावगाहानां सहस्रं ।। -- उस लवण समुद्रके ठीक मध्यमें चारों दिशाओंमें चार पाताल बने हुये हैं, जो कि जंबूद्वीपकी रनवेदिकासे पिचानव्यै हजार योजन तिरछा चाल कर रत्नप्रभा भूमिके कुठिया या कूआ समान विवर हैं । इन चारोंकी गहराई एक लाख योजन है । इन गोल पातालोंकी अधस्तल और उपरितलमें चौडाई दश हजार तथा मध्यमें एक लाख योजन है । ऊंची खडी कर दी गयी ढोलक या पखवाजकासा
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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