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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
करधोनी, हार, कुंडल, अंगूठी आदि अलंकारोंको लेकर पहन लेते हैं । चौथे माल्यांग कल्प वृक्षोंसे चंपा, चमेली, केवडा, जुही, गुलाब, आदिकी फलती, फूलती मालाओं या पुष्पोंको तोड़कर व्यवहारमें लाते हैं। पांचवें ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंसे ऐसे चमकीले पदार्थोको प्राप्त कर लेते हैं जिनसे कि सूर्य, चंद्रमा, शुक्र आदि विमानोंकी कांति भी छिप जाती है । इस ही कारण तीनों भोग भूमियोंमें अभिभूत सूर्य चंद्रमा आदि ज्योतिष्कमंडलका दर्शन नहीं होपाता है, जैसे कि दिनमें तारामंडल नहीं दीखता है । छठे दीपांग जातिके कल्पवृक्षोंसे चमकदार फले हुये लाल, हरे, पीले, दीपोंको तोड लाकर वे अपने घरमें धर लेते हैं । सातवें गृहांग जातिके कल्पवृक्ष तो रत्नमय कोठियां, कोट, महल, कमरा, आदि रूप करके परिणमते हुये फल जाते हैं | आठवें भोजनांग कल्पवृक्ष तो छह रस युक्त अमृतमय दिव्य आहार रूप होकर फलते हैं। नौवें भाजनांग कल्पवृक्ष सोने, चांदी, रत्नोंके बने हुये कलश, थाली, कटोरा, डेग, आदि रूप फल जाते हैं तथा दश वस्त्रांग, जातिके कल्पवृक्षोंसे अनेक प्रकारके सुन्दर वस्त्रोंको वे प्राप्त कर लेते हैं। ये पार्थिव कल्पवृक्ष इन पांचों भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें भोगभूमि सम्बन्धी व्यवहार कालको निमित्त पाकर उपज जाते हैं । कर्मभूमि सम्बन्धी व्यवहार कालकी प्रवृत्ति होनेपर विनश जाते हैं । किन्तु स्वर्ग, हैमवतक, देवकुरु, हरिवर्ष, सूर्यविमान, श्रीदेवीगृह, भवनवासी या व्यंतरोंके भवन आदिमें ये कल्पवृक्ष सर्वदा बने रहते हैं। आजकल भी प्रायः सभी भोगोपभोगोंके उपयोगी पदार्थ इन्हीं एकेन्द्रिय वृक्ष या खानोंसे उपजते हैं । भूषण या प्रकाशके उपयोगी सुवर्ण, रत्न, आदि पदार्थ तो खानोंसे प्राप्त कर लिये जाते हैं । खानोंसे मट्टी, पत्थर, कंकड, लोहेको लाकर सुन्दर, गृह, किले, कोठियां, महल, बना दिये जाते हैं । वृक्षोंकी लकडीसे किवाड बन जाते हैं । पष्प या माला अथवा भोजन तो प्रायः वृक्ष या वेलोंसे ही प्राप्त किये जाते हैं। अन्तर इतना ही है कि कार्तिक मासमें गेंहू बो देनेपर हमको वैसाखमें फलकर छह या पांच महीने पश्चात् खेतसे गेंहू प्राप्त होता है और उस उस जातिके कल्पवृक्षोंसे अन्तर्मुहूर्तमें ही नियत अभिलाषित वस्तुकी इच्छा अनुसार प्राप्ति हो जाती है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । कदाचित् किसी किसी व्यक्तिकी इच्छाओं अनुसार तत्क्षण मलस्राव (मूतना हंगना ) जंभाई लेना मद ( नशा ) हो जाना आदि क्रियायें हो जाती हैं । जगत्के सम्पूर्ण कार्य अपने अपने कारणों द्वारा सम्पादित हो रहे हैं । अन्तर इतना ही है कि कोई कार्य विलम्बसाध्य हैं । तथा पुण्यशालियोंके अनेक कार्य क्षिप्र हो जाते हैं। वर्तमान कर्मभूमिमें भी उत्पाद प्रक्रियाका तारतभ्य देखा जाता है । हथिनी अठारह महीनेमें प्रसव करती है । गर्भधारणके तेरहमास पीछे उटिनी बच्चाको जनती हैं । घोडी बारह महीनेमें, भैंस दश महीनेमें, गायें या स्त्रियां नौ मासमें अपत्यको उपजाती हैं । छिरिया छह महीनेमें कुतिया तीन महीनेमें व्याय जाती हैं । गर्भ स्थितिके पश्चात् मुर्गी दश दिन पीछे अण्डा देना प्रारम्भ कर देती है । कबूतरी गर्भस्थितिके सात दिन पश्चात् प्रसूता हो जाती है। भिन्न भिन्न ऋतु या न्यारी न्यारी देशपरिस्थिति अथवा विज्ञान प्रयोगप्रक्रिया द्वारा शीतोष्णता अनुसार