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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३५१ जल, तेज, वायु, वनस्पतिकायिक जीवोंकी है, इनकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त भी वहां पायी जाती है । जैसे कि उत्तरकुरुमें जघन्य आयु एक समय अधिक दो पल्य और उत्कृष्ट पूरे तीन पल्यकी है ये भोगभूमियां मनुष्य या तिर्यच दोनों स्त्री और पुरुषका युगल होकर उपजते हैं। पहिले युगलकी स्त्रियां छींकसे और पुरुष केवल जंभाई लेनेसे पूर्ण आयुके अन्तमें मर जाते हैं, विद्यु'त्के समान उनका शरीर विघट जाता है। नवीन युगल सात दिनतक अपने अंगूठेका पान करते हुये ऊपरको मुख करके लोटते रहते हैं। पीछे सात दिनतक भूमिमें रेंगते रहते हैं। तीसरे सप्ताहमें अव्यक्त मधुर भाषण करते हुये गिरते पडते पावोंसे चलते हैं। चौथे सप्ताहमें पांवोंको जमाकर चल लेते हैं । पांचवे सप्ताहमें कलागुणोंको धार लेते हैं। छठे सप्ताहमें तरुण अवस्थाको प्राप्त होकर भोगोंको भोगते हैं और सातवें सप्ताह करके सम्यक्त्व ग्रहणकी योग्यता प्राप्त कर लेते हैं । जघन्य भोगभूमियां मनुष्योंका शरीर दो हजार धनुष ऊंचा है । एक दिन बीचमें देकर दूसरे दिन एक बार आमले बराबर भोजन करते हैं। मध्यम भोगभूमियां मनुष्योंका शरीर चार हजार धनुष ऊंचा है। दो दिन बीचमें देकर तीसरे दिन एक बार बहेडे समान आहार लेते हैं। यह आहार अतीव गरिष्ठ होता है, जैसे कि चक्रवर्ती या नारायण, प्रतिनारायणके भोजनको साधारण मनुष्य नहीं पचा सकता है, भोगभूमियोंका आहारयोग्य द्रव्य उससे भी कहीं अत्यधिक गरिष्ठ होता है । उत्तम भोगभूमियां मनुष्योंका शरीर छह हजार धनुष यानी तीन कोस ऊंचा है और आठवें भक्त यानी तीन दिन बीचमें देकर चौथे दिन छोटे बेर तुल्य एक बार आहार लेते हैं । कर्म भूमिके मनुष्योंकी अपेक्षा जैसे हाथी, घोडे, बैल, आदिका शरीर जिस क्रमसे बढा हुआ है, उसी प्रकार वहां भी तिर्यचोंका शरीर मनुष्य शरीरसे बडा है। हां, गेंहू, चने, जौ, आदिमें कोई विशेष अंतर नहीं है । यो देश भेदसे इनमें थोडा बहुत अब भी अंतर पाया जाता है । जो वनस्पतियां बीज अनुसार उपजती हैं वे गेहूं, चना, आम, नीबू, अनार, आदि भोगभूमियोंमें अवश्य पायी जाती हैं। भले ही उनका उपयोग नहीं होय । आज कल भी तो लाखों वनस्पतियां वनमें यों ही नष्ट होजाती हैं। बीज संतान उनकी बनी रहती है। भरत, ऐरावत, क्षेत्रोंमें भोगभूमियोंके समय भी बीजांकुर न्यायसे अनादि कालीन उक्त वनस्पतियां अवश्य थीं । हां, कर्मभूमियोंके वृक्षोंके तारतम्य अनुसार भोगभूमिमें भी मनुष्योंकी अपेक्षा वृक्ष महान् हैं । वनस्पतिकायिक कल्पवृक्ष भी हैं। दश प्रकार के पृथ्वी विकार कल्पवृक्ष जघन्य भोगभूमिमें दश कोस उंचे हैं । मध्यम भोगभूमिमें बीस कोस ऊंचे और उत्तम भोगभूमिमें तीस कोस ऊंचे वृक्ष हैं । उन कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुये भोगोंको भोगभूमियां जीव सदा भोगते रहते हैं । मद्यांग जातिके वृक्षोसे वे मद्यको प्राप्त कर लेते हैं, जैसे कि ताड वृक्षोंसे भील ताडीको प्राप्त कर लेते हैं। यहां मद्यका अर्थ सुरा ( शराब ) नहीं है, किंतु दूध, दही, घी, इक्षुरस, आम्ररस, आदिकीसी सुगंधियोंको धार रहा पीने योग्य द्रवद्रव्य है । कामशक्तिका जनक होनेसे उसको उपचारसे मद्य कह दिया जाता है । वादित्रांग जातिके कल्पवृक्षोंसे मृदंग, ढोल,घंटा, वीणा आदि फल फूल रहे बाजे प्राप्त होजाते हैं। तीसरे भूषणांग जातिके कल्पवृक्षोंसे भोग भूमियां फल फूल रहे कडे,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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