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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कर सकता है । तथा तीसरे आगम प्रमाणके एक देशको तो उस तीन सूत्रों द्वारा कहे गये प्रमेयका बाधकपना नहीं है । क्योंकि समीचीन शास्त्रोंके प्रकरण तो इन ही उक्त सिद्धान्तोंकी पुष्टि करते हैं । हां, उस प्रमेयके बाधक माने जा रहे अन्य कुरान, वर्ल्ड जौगरफी, सिद्धान्तशिरोमाण, प्राकृतिकभूगोल, ऐटलस, आदि न्यारे आगमोंको तो प्रमाणपना व्यवस्थित नहीं है । अर्थात्-अप्रमाण आगम किसी समीचीन आगम द्वारा प्रतिपाद्य विषयका बाधक नहीं होता है। स्वयं अंधा भला दूसरे सूझतोंको क्या मार्ग बतायगा ? किसी नकटे द्वारा भगवद्दर्शनका प्रलोभ देनेपर स्वकीय नासिका छेद कर देना अनुचित है । नासिकाकी प्रतिष्ठाके समान इन सर्वज्ञ आम्नात आगमोंको ही प्रामाण्य मिलता रहा है। और परिशेषमें भी इन्हींको प्रामाण्य प्राप्त होगा। दिग्भ्रमी पुरुष मध्यमें भले ही कुछका कुछ समझ बैठे।
___ तत एव मूत्रद्वयेन भरतैरावतयोस्तदपरभूमिषु च स्थितेर्भेदस्य वृद्धिहासयोगाभ्यां विहितस्य प्रकथनं न बाध्यते, तथाऽसंभवात् अन्यथाभावावेदकप्रमाणाभावाचेति पर्याप्तं प्रपंचेन ।
तिस ही कारणसे यानी प्रत्यक्ष अनुमान और आगम प्रमाणों करके बाधित नहीं होनेके कारण श्री उमास्वामी महाराज करके " भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्, ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ” इन दो सूत्रों द्वारा भरत ऐरावतोंमें और उनसे न्यारी भूमियोंमें वृद्धि हासोंके योग तथा वृद्धि हासोंके अयोगसे किये गये स्थितिके भेदका बढिया कथन किया जाना किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं होता है । क्योंकि तिस प्रकार बाधक प्रमाणोंका असम्भव होजानेसे और क्षेत्रोंकी स्थितिके दूसरे प्रकारोंसे सद्भावका आवेदन करनेवाले ज्ञानोंकी प्रमाणताका अभाव होजानेसे सूत्रकारका सुंदर निरूपण निर्बाध ठहर जाता है । यों इस जिनागमकी प्रमाणताको हम कई बार कह चुके हैं। अतः यहां विस्तार कथन करनेसे पूरा पडो। विचारशील विद्वानोंके प्रति अल्प कथन ही तुष्टिकर है। .
अथ भरतैरावताभ्यामपरा भूमयः किंस्थितय इत्याह ।।
इसके अनन्तर भरत और ऐरावतसे निराली होरही भूमियां या उन भूमिओंमें स्थित होरहे मनुष्य, तिर्यच, भला कितनी स्थितिको धार रहे हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर अग्रिम सूत्र कहा जाता है।
एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैव
कुरवकाः ॥ ३०॥
एक, दो, तीन, पल्योपमस्थितियोंको धारनेवाले हैमवतक और हारिवर्षक तथा दैवकुरुवक हैं। अर्थात्-हैमवत क्षेत्रमें रहनेवाले जघन्य भोग भूमियां मनुष्य और पंचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट आयु दो अद्धापल्य है । देवकुरुमें निवास कर रहे उत्तम भोगभूमियां मनुष्य तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम है । इनकी जघन्य आयु तो एक समय अधिक एक कोटि पूर्व वर्ष और एक समय अधिक एक पल्य तथा एक समय अधिक दो पल्य यथाक्रमसे समझ लेना ।