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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ___ अथ भरतैरावताभ्यामपरा भूमयोवस्थिता एवेत्यावेदयति । अब श्री उमास्वामी महाराज भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्रसे भिन्न पडी हुई भूमियां अवस्थित हैं । इस सिद्धान्तका विज्ञापन कराते हैं। ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः॥२९॥ उन भरत क्षेत्र, ऐरावत क्षेत्रोंसे शेष बच रहीं अन्य भूमियां अवस्थित एकसी रहती हैं । उन भूमियोंमें उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, कालोंका परिवर्तन नहीं है। तत्स्थप्राणिनामनुभवादिभिवृद्धिवासाभावात् । पदसमययोरुत्सर्पिण्यवसर्पिण्योरसंभवादेकैककालत्वादवस्थिता एव ताभ्यामपरा भूमयोऽवगंतव्याः । तदेवं ___ उन हैमवत, हैरण्यवत आदि क्षेत्रोंकी भूमियोंमें ठहर रहे प्राणियोंके अनुभव, आयुष्य आदि करके बढने और घटनेका अभाव हो जानेसे वे भूमियां अवस्थित कही जाती हैं । दुःषमदुःषमा आदि या सुषमसुषमा आदि छह समयोंको धारनेवाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीका असम्भव हो जानेसे सदा यथायोग्य एक एक ही कालकी वर्तना होनेके कारण उन भरत ऐरावतोंसे भिन्न हो रहीं शेष भूमियां अवस्थित ही समझ लेनी चाहिये और तिस कारण इस प्रकार होनेपरः वर्षवर्षधराबाध्यविष्कंभकथनं कृतं । सूत्रत्रयेण भूमीनां स्थितिभेदो द्वयेन तु ॥१॥ श्री उमास्वामी महाराजने पच्चीसवें, छब्बीसवें, सत्ताईसवें, तीन सूत्रों करके क्षेत्र और पर्वतोंकी चौडाईका बाधा रहित कथन कर दिया है और अट्ठाईसवें, उन्तीसवें, इन दोनों सूत्रों करके तो भरत, ऐरावत, और उनसे न्यारे क्षेत्र या पर्वतोंमें स्थितियोंके भेदका निर्बाध निरूपण कर दिया है । न हि भरतादिवर्षाणां हिमवदादिवर्षधराणां च सूत्रत्रयेण विष्कंभस्य कथनं बाध्यते प्रत्यक्षानुमानयोस्तदविषयत्वेन तद्बाधकत्वायोगात् प्रवचनै कदेशस्य च तद्भाधकस्याभावात् आगमांतरस्य च तद्भाधकस्याप्रमाणत्वात् । श्री उमास्वामी महाराज द्वारा “ भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तारः षट् चैकोनविंशति भागा योजनस्य, तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहांताः, उत्तरा दक्षिणतुल्याः ” इन तीनों सूत्रों करके भरत हैमवत, आदि क्षेत्रोंकी और हिमवान् महाहिमवान् आदि पर्वतोंकी चौडाईका किया जा चुका निरूपण फिर किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं हो जाता है । क्योंकि उन सूत्रोंके प्रतिपाद्य अर्थको नहीं विषय करनेवाले होने के कारण इन प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंको उस प्रतिपाद्य अर्थके बाधकपनका अयोग है। जो प्रमाण जिस विषयमें नहीं प्रवर्तता है वह उस विषयका साधक या बाधक नहीं हो सकता है । व्याकरणको पढा हुआ पण्डित विचारा वैद्यक प्रयोगोंका खण्डन या मण्डन नहीं
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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