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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३४७ तत्रानुभवादिभिरुत्सर्पणशीला उत्सर्पिणी तैरेवावसर्पणशीलावसर्पिणी । षदकालाः पुनरुत्सपिण्यां दुषमदुःषमादयोऽवसर्पिण्यां सुषमसुषमादयः प्रतिपत्तव्याः। उसमें स्थित हो जानेके कारण उसके वाचक शब्द द्वारा कहे जानेकी सिद्धि है, इस कारण भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके वृद्धि और ह्रासका योग बतला दिया है। अर्थात्-" पर्वतदाह " इस पद अनुसार पहाडमें ठहर रहीं वनस्पतियोंका अरणि निर्मथन ( बासों या अन्य विशेष काठकी रगड) द्वारा दाह हो जानेपर पर्वत जल रहा है, यों कह दिया जाता है । यह उस पर्वतमें ठहरनेवाले वृक्ष, वल्ली, पत्ते, आदि आधेयोंका पर्वत शद्वसे कथन हैं । इसी प्रकार भरत, ऐरावत, क्षेत्रोंकी या भरत, ऐरावत, क्षेत्रवर्ति आकाशकी हीनता, या अधिकता, तो सम्भव नहीं है । अतः उसमें स्थित हो रहे कतिपय पदार्थोकी वृद्धि या हानिका हो जाना समझ लेना चाहिये अथवा "भरतैरावतयोः" यह पद षष्ठी विभक्तिका द्विवचन नहीं समझा जाय, किन्तु सप्तमी विभक्तिका द्विवचन मान लिया जाय । ऐसी दशा होनेपर उनमें स्थित हो रहे मनुष्य, तिर्यंच, पशु, पक्षी, आदि जीवोंके अनुभव, आयुष्यपरिमाण, शरीरकी उच्चाई, बल, सुख, आदिसे किये गये वृद्धि और ह्रास ये छह समयवाले उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी कालों करके होते रहते हैं । अर्थात्-ऋतुपरिवर्तन, शीतकी अधिकता, सूर्यका प्रचण्ड प्रताप, नियत वनस्पस्तियोंका फलना फूलना आदि कार्य जैसे द्रव्य परिवर्तन स्वरूप कतिपय व्यवहार कालों द्वारा सम्पादित हो जाते हैं, उसी प्रकार अनेक अन्तरंगकारण और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, इन व्यवहार कालोंको निमित्त पाकर जीवोंके अनुभव आदिकी वृद्धि, हानियां हो जाती हैं । उन कालोंमें अनुभव, आयुष्य, आदि करके ऊपरको सरकना ( वृद्धि ) स्वभाववाली उत्सर्पिणी है और उन हीं अनुभव आदि करके नीचेको. सरकना ( हानि ) स्वभाववाली अवसर्पिणी है । फिर उत्सर्पिणीमें छह काल दुःषमदुःषमा आदिक हैं और अवसर्पिणीमें सुषमसुषमा आदिक छह काल समझ लेने चाहिये । सुषमसुषमा चार कोटाकोटी सागर तक चलता है । उस समय यहां उत्तम भोगभूमिकी रचना हो जाती है । पीछे क्रमसे हानि होते हुये तीन कोटाकोटी अद्धा सागरका सुषमा काल प्रवर्तता है । उसकी आदिमें मनुष्य हरिवर्षके मनुष्योंके समान मध्यम भोगभूमिवाले समझे जाते हैं । पश्चात् क्रमसे अनुभव आदिकी हानि होते हुये दो कोटाकोटी सागर स्थितिवाला जघन्य भोग भूमिकी रचनासे युक्त सुषमदुःषमा काल चालू होजाता है । उसके अनन्तर क्रमसे हीनता होनेपर बियालीस हजार वर्ष कमती एक कोटाकोटी सागर पर्यंत कर्मभूमिका दुःषमसुषमा काल विदेह समान रचनावाला प्रवर्तता है । विदेहमें क्रमसे हानि नहीं है । समान काल रहता है । पश्चात् क्रमसे न्यूनता होते हुये इक्कीस हजार वर्षतक कर्मभूमिका दुःषमा काल वर्तता है । पुनः अनुभव आदिकी न्यूनता होते होते दुःषमदुःषमा काल इक्कीस हजार वर्षका प्रवर्तता है । यह अवसर्पिणीकी दशा बता दी है । उत्सर्पिणीमें सुख आदिकी क्रमसे बढ़ती हुई इससे विपरीत व्यवस्थाको आगम अनुसार समझ लेना चाहिये ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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