SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके रुक्मीको आठ, हैरण्यवत क्षेत्रको चार, शिखरी पर्वतको दो, और ऐरावत क्षेत्रको एक, यो सातों क्षेत्र छःऊ पर्वतोंके एकसौ नब्बै शलाकायें प्राप्त हैं। जंबूद्वीपके एक लाख योजन चौडे क्षेत्रमें एकसौ नब्बैका भाग देकर पुनः अपनी अपनी प्राप्त शलाकाओंसे गुणा कर देने पर पर्वत और क्षेत्रोंकी उक्त चौडाई निकल आती है। परे वर्षधरादयः किं विस्तारा इत्याह । विदेह क्षेत्रसे परली ओरके पर्वत आदिक क्यों जी, कितने विस्तारके धारी हैं ? इस प्रकार प्रतिपित्सा होने पर श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्रको स्पष्ट कहते हैं । उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२७॥ उत्तरवर्ती ऐरावत आदिक नील पर्यंत क्षेत्र या पर्वत तो दक्षिणवर्ती भरत आदि क्षेत्र और हिमवान् आदि पर्वतोंके समान समझ लेने चाहिये । ह्रद, कमल, नदी, कुण्ड आदि अकृत्रिम पदार्थोकी रचना भी तुल्य है । निषधेन तुल्यो नीलो वर्षधरः, हरिणा रम्यको वर्षः, महाहिमवता रुक्मीवर्षधरः, हैमवतेन हैरण्यवतो वर्षः, हिमवता शिखरी वर्षधरः, भरतेन दक्षिणेनोत्तर ऐरावत इति योज्यं । निषध पर्वतके समान नील पर्वत है, हरिक्षेत्रके समान रम्यक वर्ष है, महाहिमवानके समान रुक्मी पर्वत भी चार हजार दो सौ दस और दस बटे उन्नीस योजन चौडा है । हैमवत क्षेत्रसे हैरण्यवत वर्ष तुल्यताको रखता है । शिखरी पर्वत हिमवान् पर्वतके सम है और दक्षिण दिशावर्ती भरतके समान उत्तरदिशाका ऐरावत क्षेत्र है । गंगा, सिन्धु, के साथ रक्ता, रक्तोदाकी, पद्मके साथ पुण्डरीक हृदकी तथा अन्य नदी, कमल, आदिकोंकी, तुल्यता की योजना इसी प्रकार कर लेनी चाहिये । अथ भरतैरावतयोरनवस्थितत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह । अब इसके पश्चात् श्री उमास्वामी महाराज भरत और ऐरावत क्षेत्रके ( में ) अनवस्थितपनेकी प्रातिपत्ति करानेके लिये अग्रिम सूत्रको कहते हैं | भरतैरावतयोर्वृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्य वसर्पिणीभ्याम् ॥२८॥ - दुःषम दुःषमा आदि या सुषमसुषमा आदि छह समयोंको धार रहे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक व्यवहार कालों करके भरत और ऐरावत दो क्षेत्रोंके ( में ) वृद्धि और ह्रास हो जाते हैं। तास्थ्यात्ताच्छब्दयसिद्धर्भरतैरावतयोवृद्धिद्वासयोगः अधिकरणनिर्देशो वा; तत्रस्थानां हि मनुष्यादीनामनुभवायुःप्रमाणादिकृतौ वृद्धिहासौ षट्कालाभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्यां ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy