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________________ तत्त्वार्थ लोकवार्त I । कर रहे हैं । जमाल है, पांव रपट जाता है । किसी विवक्षित शद्वके बोलनेकी इच्छा होने पर दूसरा ही अविवक्षित मुखसे निकल पडता है । कर्मफलचेतना की अवस्थामें भी एकन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों को पुरुषार्थ करना अनिवार्य है । भले ही उस पुरुषार्थको करनेमें कर्मोंद्वारा होनेवाली पराधीनता प्रेरक होय, किन्तु प्रयत्न तो आत्मा को ही करना पडता है । घोडेके अनुसार अश्वारको जो प्रयत्न करने पडते हैं । उनका प्रेरक निमित्त घोडा है, किन्तु पुरुषार्थो का कर्त्ता अखवार है एवं अश्ववारके निमित्तसे घोडे को जो प्रयत्न करने पड़ते हैं उन पुरुषार्थीको सम्पादन करनेवाला स्वतंत्र कती घोडा है । " देवदत्तः दात्रेण लुनाति ” देवदत्त हैंसियासे फलको छेदता है, यहां कारण या कारणोंकी उपस्थिती होने पर भी देवदत्तका स्वतंत्र कर्त्तापन तो निमित्त कारणों करके नहीं छीन लिया जाता है। बात यह है कि स्वयं हो या परतंत्र हो आत्माको स्वकीय संपूर्ण परिणामोंको बनाने में पुरुषार्थ करना पडता है । इसी प्रकार जड पदार्थ भी जगतमें बहुतसे कार्यों को करता है । आत्माके वैसे परिणामों को पुरुषार्थ या प्रयत्न कहते हैं और पुद्गल या अन्य द्रव्योंके तादृश परिणामोंको वीर्य, शक्ति, आदि व्यवहार करते हैं । सूर्य की घाम, चन्द्रमाकी चांदनी, ऋतुऐं मेघ जल ये अनेक कार्यों को भींत या सोटें छतको डाट रही हैं, खाट या काष्ठासन ऊपर बैठे हुये मनुष्यको साध रहा है, गोटा पेटके मलको खुरच रहा है, कीचलिपिटी तूंबीमेसे धीरे धीरे कीचको छुडाकर जल तुंबीको ऊपर जलप्रदेशमें उछाल रहा है, जल नावको सरका रहा है, आदि कार्य भी द्रव्योंके निजवीर्य द्वारा सम्पादित हो रहे हैं । जिन जड द्रव्योंमें कि कथमपि इच्छा की सम्भावना नहीं है, यहां प्रकरणमें क्षयोपशम भावको बनानेमें आत्माका पुरुषार्थ होना आवश्यक है। हां, आत्माको अपनी प्रकृति अनुसार फल देनेके लिये हुये कमाके पत्र परिणामके सम्पादक तो कर्म ही हैं। आत्मकृत निज भावों के निमित्त कारण कर्म हो जाते हैं । और कर्मकृत उन कर्मों के परिणामों के निमित्तकारण आत्मीय भाव हो जाते हैं । क्षायोपशमिक भावोंको बनाने में आत्मा पुरुषार्थ करता ही है। किन्तु साथमें द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव, या आत्मपरिणामको निमित्त पाकर जब कर्मोंकी क्षयोपशम भावको बनानेके अनुकूल विशेष अवस्था होगी तभी वे कर्म क्षायोपशमिक भावोंके निमित्त हो सकते हैं । पेटमें जाकर हुई औषधिकी विशेष अवस्था ही उदररोगनिवृत्तिका निमित्त है । यहां मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, दानान्तराय आदि कर्मोंके सर्वघातिस्पर्द्धकों का उदयक्षय होजानेसे और उनहीके भविष्य में उदय आनेवाले सर्वघातिस्पर्धकों का सत्तामें बने रहने रूप उपशम होजानेसे तथा देशघाति स्पर्द्धकोंके उदयसे आत्माकें क्षायोपशमिक भाव निपजता है । यद्यपि मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियां देशघाति हैं । फिर भी देशघातिओं में सर्ववातिस्पर्द्धक पाये जाते हैं । अतः आत्मीयगुणको पूर्ण रूपसे घातनेवाले कर्मोकी उदय, उदीरणायें, नहीं होनी चाहिये, तभी क्षायोपशमिक भाव निष्पन्न होगा । किं पुनः स्पर्धका नाम ? अविभागपरिच्छिन्नकर्मप्रदेशरसभागप्रचयपंक्तेः क्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्द्धकं कर्मस्कंधशक्तिविशेषः । २४
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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