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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २३ बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक पुरुषार्थसे उत्पन्न हुये सम्पूर्ण भावोंमें आत्माको कर्त्तापन प्राप्त है । चौदहवें गुणस्थान के अन्त समय के पश्चात् दुई सिद्ध अवस्थामें तो सर्वदा शुद्ध पुरुषार्थजन्य केवलज्ञान, सिद्धत्व, सम्यक्त्व, अनन्तवीर्य, जीवत्व आदिक भावोंका कर्त्ता आत्मा है, सिद्ध अवस्थावाली मोक्ष तो चारों पुरुषार्थोमें सबसे बडा परम पुरुषार्थ माना गया है । न्यायपूर्वक भोगोंका भोगनारूप कामपुरुषार्थ, समुचित आजीविकाके उपायों द्वारा धन उपार्जन करनारूप अर्थपुरुषार्थ और दान, पूजन, अध्ययन, ध्यान, क्षमा, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, गुप्ति, समिति, सामायिक, आदि क्रियाओं या परिणामोंको करनारूप धर्मपुरुषार्थ इनसे अत्यधिक पुरुषार्थपूर्वकभाव सिद्ध भगवान् के हो रहे हैं । संसारी जीवोंके दशवें गुणस्थानतक कतिपयभाव इच्छापूर्वक पाये जाते हैं । उनका दृष्टान्त पाकर सभी और अपरिस्पन्द आत्मक परिणामों में भी इच्छाको कारण मानने की सम्भावना करना किये गये अन्न, दुग्ध आदि में आहार वर्गणायें बहुभाग पायी जाती हैं। स्वतंत्र या कुछ कुछ कमाँके अधीन हो रहा यह आत्मा पुरुषार्थ द्वारा उनका रस, रुधिर, मांस आदि बनता है । उनको शरीरके यथोचित भागों में भेजता है । बालोंको उगाता है, फोडा होनेपर औषधिके निमित्तसे अथवा छोटी छोटी फुंसियां या मक्खी, खटमलोंके घावोंको यों ही विना औषधियोंके पूर देता है । हंसना, छींकना, श्वास लेना, रक्तसंचार करना आदि सभी क्रियायें पुरुषार्थजन्य हैं । सभी प्रयत्नोंमें इच्छायें कारण नहीं हैं । शरीरसे बहुत परिश्रम करनेवाले किसानकी अपेक्षा यदि बढिया व्याख्यान करनेवाला पण्डित अधिक . पुरुषार्थी है और उस व्याख्याताकी अपेक्षा मुकदमा जिताने के लिये अत्यधिक मानसिक परिश्रम कर रहा की यदि अति पुरुषार्थी माना जाता है तो उपशमक्षपक श्रेणियों में प्रयत्न कर बनाये जा रहे सातिशय विचार आत्मक श्रुतज्ञानोंकी धारा प्रवाहस्वरूप शुक्लध्यान में चित्तको लगानेवाले जीव बडे भारी पुरुषार्थी कहना चाहिये । अतः मोक्षके साधन या संवरनिर्जरा के कारण हो रहे आठवें, नक्वें, दशवें, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानों के परिणामोंमें जितना पुरुषार्थ आवश्यक है उससे भी कहीं अधिक तेरहवें गुणस्थानमें चलते, उपदेश देते और अन्तमें सूक्ष्मक्रिया करते समय पुरुषार्थ करना अनिवार्य है । इससे भी कहीं अधिक चौदहवें गुणस्थानमें प्रयत्न करना पडता है तभी पिचासी प्रकृतियोंका नाश हो पाता है । यहां इच्छायें सर्वथा नहीं हैं । सिद्ध अवस्थामें तो अनन्त कालतक के लिये परमपुरुषार्थ करना अत्यावश्यक जाता है । इच्छाके साथ पुरुषार्थका कार्यकारणभाव माननेपर अन्वयव्यभिचार हो रहे देखे जाते हैं । चक्कू या कांचके गढ जानेसे शरीरमें रक्तके बहने पर अथवा बलात्कारकी मलमूत्रबाधा उपस्थित हो जानेपर या ज्यरकी अवस्था में अथवा पांव रपट जाने या गोत्रस्खलन होनेपर हुये कितने ही इच्छापूर्वक पुरुषार्थीको शरीरप्रकृति परिस्थितिवश हुये अनिच्छापूर्वक पुरुषार्थं नष्ट कर अनचीते कार्योंको साध देते रक्तको रोकने अथवा ज्वर (बुखार) के रोकनेवाले इच्छापूर्वक पुरुषार्थीका व्यापार नहीं और आत्माके अनिच्छापूर्वक पुरुषार्थोंसे मल निकल जाता है, ज्वर चढ आता है, रक्त आत्मा के परिस्पन्द मूढता है । भोजन 1 अनुसार परतंत्र 1 । अर्थात् - हैं हो पाता है, बहता रहता
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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