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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
हैं । यद्यपि सुमति या कुमतिको रोकनेवाला मतिज्ञानावरण एक ही है। फिर भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके सहचर भावसे उनमें भेद पड जाता है । तथा चक्षुर्दर्शन आदि भावोंको निवारनेवाले चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण इन तीन उत्तर प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे उपज रहा अदर्शनभाव क्षायोपशामिक है । विशेष यह है कि अवधिज्ञानके पहिले अवधिदर्शन होता है । विभंगज्ञानके पूर्वमें तो मतिज्ञान या श्रुतज्ञान है। हां, उन ज्ञानोंके पूर्व या पूर्व पूर्वमें अचक्षुर्दर्शन है । मन:पर्ययज्ञान और विभंगज्ञान दोनोंके अव्यवहित पूर्वमें दर्शन नहीं है । हां दोनोंके पूर्ववर्ती ज्ञानके पहिले अचक्षुर्दर्शन पाया जाता है । अतः विभंग और मनःपर्ययको भी परम्परासे दर्शनपूर्वक मान लेते हैं । जैसे कि मतिज्ञानपूर्वक हुये श्रुतज्ञानके अव्यवहित पूर्वमें कोई दर्शन नहीं है। यहां भी परम्परासे दर्शनको पूर्ववर्ती इष्ट किया गया है । श्रुतपूर्वक हुये श्रुतज्ञानमें या उसकी धाराओंमें तो तीन, चार, दश, बीस, कोटिके व्यवधानको लिये हुये पूर्ववर्ती दर्शन माना गया है । तथा दानान्तराय, लाभान्तराय आदि पांच कर्मोके क्षयोपशमसे उपज रहीं लब्धियां क्षायोपशमिक हैं । दर्शनमोहनीय, चारित्र मोहनीय और संयमासंयम मोहनीय कर्मोके क्षयोपशमसे उपज रहे होने के कारण अंतके तनिभाव क्षायोपशमिक हैं ।
कुतः पुनरयं मिश्रो भावः स्यादिति चेत् मतिज्ञानावरणादिसर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमात्तद्देशघातिस्पर्धकानामुदयात् क्षायोपशमिको भावः।
फिर यह तीसरा भाव मिश्र यानी दो, तीनका मिला हुआ परिणाम किस ढंगसे है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर तो हम जैनोंका यह उत्तर है कि सर्वघातिस्पर्धकोंका उदय क्षय अर्थात्द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुसार उदयमें आकर आत्माके अव्यक्त पुरुषार्थ द्वारा आत्माको फल दिये विना ही प्रदेशोदय हो जानारूप क्षय है, अथवा द्रव्यादि चतुष्टयकी योग्यता न मिलनेसे प्रतिपक्षी कर्मोके उदयका अभाव हो जाना ही यहां क्षय शबसे अभिप्रेत है। क्षयोपशम भावमें आत्यन्तिक निवृत्त हो जानारूप क्षय नहीं पकडा गया है। क्षयोपशमें पडे हुये उपशम शब्दसे इस समय उदयमें नहीं प्राप्त हो रहे किन्तु भविष्यकालमें उदय कोटिपर आनेवाले सर्वघातिस्पर्द्धकोंका वहांका वहीं सत्तारूपसे अवस्थित पडे रहना रूप उपशम लिया गया है । अन्यथा उदीरणाका कारण मिल जानेसे भविष्यमें उदय आनेवाली प्रकृतियोंका उदय हो जाना सम्भवता है, ऐसी दशामें “ सब गुड गोबर न हो जाय " इसलिये पारिणामिक पुरुषार्थ बलसे उनका उपशम बनाये रहना आवश्यक पड गया है। क्षयोपशम शद्बमें यद्यपि उदय नहीं कहा गया है। फिर भी " तन्मध्यपतितस्तद्गहणेन गृह्यते" इस परिभाषाके अनुसार देशघातिप्रकृतियोंका उदय भी इस गुणमें माना जाता है । अतः विवक्षित गुणकी सर्वघातिप्रकृतियोंके उदयक्षय और भविष्यमें उदय आनेवाली उन्हींके सदवस्थारूप उपशम तथा देशघातिके उदय ऐसी सामग्रीके मिलनेपर आत्मामें अव्यक्तपुरुषार्थजन्य क्षायोपशमिकभाव उपजता है । क्षायोपशमिकभावका स्वतंत्र कर्ता आत्मा तो उपादान कारण है, और क्षय, उपशम, उदय, ये कर्मोकी अवस्थायें निमित्त हैं। “ पुग्गलकम्मादीणं कत्ता व्यवहारदो" इस सिद्धान्त अनुसार आत्माके