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________________ 29 तत्त्वार्थचिन्तामणिः वीर्य ये पांच लब्धियां इस ढंगसे पिण्ड भावोंके पन्द्रह भेद हुये तथा देशघाति सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर चौथेसे सातवें गुणस्थानतक पाया जानेवाला वेदक सम्यक्त्व तथा संज्वलनकी चौकडीमेंसे किसी एकका और नो कषायोंमेंसे यथासम्भव तीन, चार, पांच प्रकृतियोंका उदय होनेपर क्षायोपशमिक चारित्र होता है । एवं पांचवें गुणस्थानमें पाया जानेवाला संयमासंयमरूप भाव है, इस प्रकार पन्द्रह और तीन यों अठारह भेद क्षायोपशमिक भावके हैं। चत्वारश्च त्रयश्च यश्च पंच च इति चतुस्त्रित्रिपंच एते भेदा यासां ताश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः। कास्ताः? ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयः। यथाक्रममित्यनुवर्तते तेनैवमभिसंबंधः कर्तव्यः। ज्ञानं चतुर्भेद, अज्ञानं त्रिभेदं दर्शनं त्रिभेदं, लब्धिः पंचभेदा, सम्यत्वचारित्र-संयमासंयमाश्च त्रयः क्षायोपशमिकमावस्याष्टादशभेदा इति । ____ज्ञान, अज्ञान, दर्शन, लब्धि, इनका इतरेतर योग समासकर पुनः चार और तीन तथा तीन पुनश्च पांच इन संख्यावाचक पदोंका द्वन्द्व करते हुये भेद पदके साथ बहुब्रीहि समासद्वारा यथाक्रम सम्बन्ध करलेना चाहिये। उसका अर्थ यह होता है कि जिन ज्ञान, अज्ञान, दर्शन, लब्धियों के चार, तीन, तीन, पांच, इस प्रकार भेद हैं वे यथाक्रमसे चार भेदवाला ज्ञान, तीन भेदवाला अज्ञान, तीन भेदवाला दर्शन, और पांच भेदवाली लब्धियां हैं। वे भेदवाले पदार्थ कौन हैं ? इसका उत्तर पूर्व उद्देश्य दलमें पडी हुयी ज्ञान, अज्ञान, दर्शन और लब्धियां हैं। दूसरे सूत्रमें से यथाक्रम इस पद की अनुवृत्ति कर ली जाती है। तिस करके पदोंका अन्वय कर इस प्रकार उद्देश्य विधेय दलोंका दोनों ओरसे यों सम्बन्ध करलेना चाहिये कि जिसके चार भेद हैं ऐसा ज्ञानतत्त्व क्षायोपशामिक है, तीन भेदवाला अज्ञान क्षायोपशमिक है, मिश्रभावदर्शन तीन भेदोंको धारता है, लब्धियां पांच भेदोंको धार रही हैं और वेदकसम्यक्त्व और छटे, सातवें, गुणस्थानोंमें वर्तरहा क्षयोपशम चारित्र तथा त्रसवधत्यागरूप संयम और स्थावरवधका अत्यागरूप असंयम इस प्रकार कातपय मनुष्य और तिर्यंच सम्यग्दृष्टियोंके पांचवें गुणस्थानमें हो रहा संयमासंयम भाव है । ये पिछले तीन भाव अपिण्ड हैं । इस प्रकार क्षायोपशामिक भावके अठारह भेद हो जाते हैं। मत्यादिज्ञानावरणचतुष्टयस्य मत्यज्ञानाद्यावरणत्रयस्य चक्षुदर्शनाद्यावरणत्रयस्य च दानांतरायादिपंचकस्य दर्शनमोहस्य चारित्रमोहस्य संयमासंयममोहस्य च क्षयोपशमादुपजायमानत्वात् । मति आदि चार ज्ञानोंका आवरण करनेवाले मतिज्ञानारवण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण इन चारों कर्मोके क्षयोपशमसे उपज रहे होनेके कारण चार भेदवाला ज्ञान है और कुमति आदि जीवभावोंको रोकनेवाले कुमतिज्ञानावरण, कुश्रुतज्ञानावरण, विभंगज्ञानावरण, इन तीन अवयववाली कर्म प्रकृतियोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न हो रहा होनेके कारण अज्ञानके तीन भेद हैं । यहां अज्ञानमें नका अर्थ पर्युदास है । ज्ञान यानी समीचीन ज्ञानोंसे भिन्न होते हुये उन प्रमाणात्मक पांच ज्ञानोंके सदृश हो रहे भाव आत्मक तीन मिथ्याज्ञान भाव तो कुज्ञान
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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