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तत्त्वाथ लोकवार्त
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( पक्ष ) वृद्धि होने के चमत्कारको धारनेवाली है । ( साध्य ) । बाधक प्रमाणोंका असम्भव हो जाने से, ( हेतु ) । आत्मीय अनुभूत हो रहे सुख या दुःखके समान ( दृष्टान्त ) इस प्रकार यहां साधनधर्मकी सिद्धि हो जाती है । बाधक प्रमाणोंका असम्भव हो जानेसे ही अतीन्द्रिय गहन सिद्वांतों की साधना कर ली जाती है। पक्षमें हेतु ठहर जाता है । अतः असिद्ध हेत्वाभास नहीं है । जिस गुण या पर्याय के अंशोंकी वृद्धि प्रकर्षताको प्राप्त हो रही है, वह कहीं न कहीं जाकर पूर्ण प्रकर्षको प्राप्त हो जाती है । इस व्याप्तिमें पडे हुये हेतुका उसकी अशुद्धि करके व्यभिचार देनेका विचार भी नहीं करना चाहिये। क्योंकि उस अशुद्धिके परम प्रकर्षी किसी आत्मामें भले प्रकार सिद्धि हो रही है । तीव्र मिथ्यादृष्टि अभव्य जीवके निगोद अवस्थामें ज्ञानादिककी अशुद्धि बढते बढते जघन्यज्ञान, जघन्यवीर्य, और अचारित्रपर पहुंच जाती है । क्षायोपशमिक मतिज्ञानकी अतिशयवती हानि पायी जाती है | हमने इस ग्रन्थ के पूर्व प्रकरणमें ही सर्वज्ञके ज्ञान की हुई वृद्धिको दिया है । अथवा तिस ही कारणसे उस ज्ञानके अविनाभावी दर्शनकी विशुद्धिका भी साधन हो चुका समझो । “ सूक्ष्माद्यर्थोपदेशो हि " इस कारिकासे लेकर कितनी ही कारिकाओं तक पहिले ग्रन्थ में हम विवरण लिख चुके हैं । अष्टसहस्रीमें " दोषावरणयोः हानि " इस सामन्तभद्री कारिका के विवरण में भी अच्छा व्याख्यान कर दिया गया है । यों हेतुमालासे कर्मो का क्षय सिद्ध हो जाता है 1
केवलज्ञान अवस्था में
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प्रमाणोंसे सिद्ध करा
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ततो युक्तः क्षायिको भावो नवभेदः ।
• तिस कारण से अनुमानरूप युक्तियोंसे साध दिया गया क्षायिकभाव नौ प्रकारका समुचित है । यद्यपि जैसे असिद्धत्व औदयिकभाव है, उस प्रकार सभी एक सौ अडतालीसों प्रकृतिओंके क्षयसे उत्पन्न हुआ सिद्धत्वभाव क्षायिक है, तथापि साधारण होनेसे सिद्धत्वभावको कण्ठोक्त नहीं गिनाया है । विशेषोंका कथन कर देनेपर उनमें साधारणरूपसे ठहरा हुआ सामान्य तो विना कहे 1 ही आ टपकता है ।
क्षायोपशमिकोऽष्टादशभेदः कथमिति तत्प्रतिपादनार्थ पंचमं सूत्रमाह ।
तीसरे क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद किस प्रकार हैं ? इस प्रकार शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर उन क्षयोपशम प्रयोजनको धारनेवाले जीवतत्त्वोंकी शिष्योंके प्रति प्रतिपत्ति करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज द्वितीयाध्यायमें पांचवें सूत्रका परिभाषण कर रहे हैं ।
ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५ ॥
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ये चार ज्ञान और कुमति, कुश्रुत, विभंग ये तीन अज्ञा तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधि दर्शन ये तीन प्रकार के दर्शन एवं दान, लाभ, भोग, उपभोग,