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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
क्षय को प्राप्त हो चुकीं । नवमें गुणस्थानके पहिले भागमें ही दर्शनावरणकी स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, इन तीन प्रकृतियोंका क्षय हो चुकता है। बारहवें गुणस्थानके अन्त समयमें ज्ञानावरणकी पांच, दर्शनावरणकी शेष छह, अन्तरायकी पांच, इस प्रकार सोलह प्रकृतियोंका ध्वंस होता है । ( साध्य ) । क्योंकि अनन्त कालतक हो रही शुद्धि की प्रमाणों द्वारा सिद्धी की जाचुकी है " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि भोक्षमार्गः” इस सूत्रकी नवासी, नव्वेमी वार्तिकों के विवरणमें भी इस हेतुदलका स्पष्टीकरण किया है।
तथाहि
इस अनुमानमें कहे गये अनन्त शुद्धि की प्रसिद्रिरूप हेतुको पुष्ट करनेके लिये ग्रन्थकार अनुमानद्वारा उसीको पुनः साध्य कोटिपर लाकर सिद्ध करते हैं जो कि यों प्रसिद्ध ही है । उसको स्पष्ट समझिये।
शुद्धिः प्रकर्षमायाति परमं कचिदात्मनि । प्रकृष्यमाणवृद्धित्वात्कनकादिविशुद्धिवत् ॥ १ ॥ शुद्धिर्ज्ञानादिकस्यात्र जीवस्यास्त्यतिशायिनी । भव्यस्य बाधकाभावादिति सिद्धान्तसाधना ॥३॥ नानैकांतिकमप्येतत्तदशुध्द्या विभाव्यते । तस्या अपि कवचित्सिद्धेः प्रकर्षस्य परस्य च ॥ ४ ॥ प्राक्साधितात्र सर्वज्ञज्ञानवृद्धिः प्रमाणत : । दर्शनस्य विशुद्धिर्वा तत एवाविनाभुवः ॥५॥
किसी एक आत्मामें हो रही ज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र, सम्यक्त्व गुणोंकी शुद्धि ( पक्ष ) उत्कृष्ट कोटिके प्रकर्षको प्रात हो जाती है । ( साध्य )। प्रकर्षको प्राप्त हो रही वृद्धिको धारनेवाली होनेसे ( हेतु )। सुवर्ण, चांदी, रत्न, आदिकी विशुद्धिके समान ( अन्वय दृष्टान्त )। भावार्थ-जैसे अग्नि संताप या तेजाब अथवा शाण, छेनी आदि कारणोंसे सोना, मोती, हीरा आदिमें बढ रही शुद्धि किसी अवस्थामें उच्च प्रार्ष को पहुंच जाती है, उसी प्रकार संसारी आत्माओंमें अभ्यास, व्यायाम, आचरणस-पत्ति, क्षयोपशम, मानसिक पवित्रता आदि कारणोंसे ज्ञानकी, चारित्रकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही अनुभूत की जाती है । आकाशमें परिमाणके समान वह किसी न किसी जीवमें परमप्रकर्ष पर्यंत बढ जाता है । उसी जीवमें प्रतिपक्षी कर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है । इस अनुमानमें दिये गये हेतुको यो पुष्ट कर लेना चाहिये कि किसी निकट भव्य जीवके ज्ञान, दर्शन आदिक गुणों की शुद्धि