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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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किसीका प्रश्न है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, दानान्तराय, आदि कर्मोका क्षय भला किस कारणसे अथवा किस प्रमाणसे सिद्ध किया जायगा ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी समाधानको कहते हैं।
आत्यंतिकः क्षयो ज्ञानदर्शनावरणस्य च । सांतरायप्रपंचस्यानंतशुद्धिप्रसिद्धितः ॥१॥
अन्तराय कर्मके भेद प्रभेदके विस्तारसे सहित होरहे ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्मका आत्यन्तिक क्षय होरहा है । क्योंकि अनन्तान्त अविभाग प्रतिच्छेदोंको धारनेवाली आत्मविशुद्रिकी प्रमाणोंद्वारा सिद्धी होरही है अर्थात्-आत्मामें अनन्त शुद्धिके प्रसिद्ध होजानेसे उसके प्रतिपक्षभूत ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोका कालद्वय संसर्गावच्छिन्न समूलचूलनाश होजाता है । वर्तमान कालमें भी इन कर्मोंका एक अवयव भी शेष नहीं रहता है और भविष्य कालमें भी उक्त घातिया कर्मोका लवमात्र संसर्ग नहीं हो पाता है, जैसे किसी अचूक औषधिसे प्रतिपक्षी रोगका वर्तमान और भविष्य कालमें अंशमात्र भी शेष नहीं रहता है ।
ज्ञानावरणस्य दर्शनावरणस्य च शदाद्दर्शनमोहस्य चारित्रमोहस्य चांतरायपंचकसहितस्यात्यंतः क्षयः कचिदस्ति अनंतशुद्धिप्रसिद्धः।
किसी विवक्षित आत्मामें [ पक्ष ] पांच भेदवाले अन्तराय कर्मसे सहित हो रहे ज्ञानावरण कर्म दर्शनावरण कर्म तथा इस सूत्र या कारिकामें पडे हुये च शबसे ग्रहण करलिये गये दर्शनमोहनीय कर्म
और चारित्र मोहनीय कर्म इनका अत्यन्त क्षय विद्यमान है । ( साध्य ) । अनन्तानन्तशुद्धिके अंशोंकी प्रमाणों द्वारा सिद्धि हो जानेसे ( हेतु ) अर्थात्-इस अनुमानसे किसी तेरहवें गुणस्थानवर्ती आत्मामें या अयोगी गुणस्थानमें अथवा सिद्धपरमेष्ठीमें घातियाकर्मोका क्षय साध दिया जाता है । क्षय किसी विवक्षित समयमें प्रारम्भ होकर अनन्तकालतक स्थिर रहता है । मृत्यु, ध्वंस, या नाशका एक ही अर्थ है। " सादिरनन्तो ध्वंस" | तिन कर्मों से अनन्तानुबन्धी चार और दर्शन मोहनीय तीन इन सात प्रकृतियोंका क्षय तो क्षायिक सम्यग्दर्शन होनेके पूर्व समयमें ही किसी चौथे, पांचवें, छटवें, या सातवें गुणस्थानमें हो चुकता है । करणत्रय विधानद्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभोंको अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय या नोकषायरूप परिणमनस्वरूप विसंयोजन करके पश्चात् आत्म पुरुषार्थकी सामर्थ्यसे अनिवृत्तिकरण कालके संख्यातवें भागमें क्रमसे मिथ्यात्त्व, मिश्र, सम्यक्त्व, प्रकृतियोंका क्षय कर दिया जाता है तथा चारित्रमोहनीय कर्मकी अप्रत्याख्यावरण चार, प्रत्याख्यानावरण चार; नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह नो कषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, इन बीस प्रकृतियोंका तो नवमें गुणस्थानमें ही क्षय हो चुकता है । दसवें गुणस्थानमें लोन संज्वलनका क्षय हो जाता है । अतः मोहनीयकी अट्ठाईसों प्रकृतियां दशवें गुणस्थानके अन्ततक