SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः - उस पहिले भरतक्षेत्रके मध्यमें गंगा, सिन्धु, दो नदियां बह रही हैं । भावार्थ-हिमवान् पर्वतके ऊपर स्थित होरहे पद्म नामक सरोवरके पूर्व दिशा सम्बन्धी सवा छह योजन चौडे और आधा योजन गहरे द्वार ( मोरी ) से निकलकर पर्वत पर ही पांचसौ योजन पूर्वको बहती हुई गंगा नदी पुनः दक्षिणकी ओर मुडकर ( बल खाकर ) कुछ अधिक पांचसौ तेईस योजम पर्वतकी आधी चौडाईपर ऊपर ही गमन करती है । पर्वतकी चौडाईमेंसे नर्दाकी धारको कमती कर आधा कर देनेसे उक्त संख्या आजाती है । सौ योजन ऊंचे हिमवान् पर्वतसे गिरकर काहल ( रणसिंहाबाजे ) या अर्धमालाके समान आकारको धारती हुई दस योजन चौडी होगयी गंगा नदी पर्वतको पचास योजन छोडकर नीचे गिरती है । हिमवान् पर्वतसे पचास योजन दक्षिणकी ओर हटकर साठ योजन लंबा चौडा और दश योजन गहरा एक चौकोर कुण्ड बना हुआ है। कुण्डके मध्यमें साडे दश योजन ऊंचा और आठ योजन लंबा, चौडा, एक सुंदर द्वीप शोभ रहा है। उस द्वीपके मध्यमें दश योजन ऊंचा वज्रमय पर्वत है। उस पर्वतके ऊपर डेढ कोस, एक कोस, आधा कोस, क्रमसे नीचे, मध्य, ऊपर भागमें चौडा और एक कोस ऊंचा ढलवां श्रीदेवीका गृह बना हुआ है, जिसका आकार मंदिरकी शिखर (गुम्मज) के समान है । श्रीगृहके मस्तक पर बने हुये कमलकी कर्णिकामें सिंहासन धरा हुआ है। उस सिंहासनपर अनुपम सुन्दर जिनप्रतिमा विराजमान है । अन्य चैत्यालयोंकी प्रतिमासे इस प्रतिमामें इतनी विशेषता है कि इनके केश जटा सदृश होरहे ऊपर की ओर लम्बे बंधे हुये हैं । वह केशोंका जटाजूट मुकुट सारिखा प्रतीत होता है । ऐसे मनोज्ञ जिनबिम्बका अभिषेक करनेके लिये ही मान हिमवान्पर्वतसे गंगा अवतीर्ण होती है । सौ योजन ऊंचे स्वर्गसमान हिमवान् पर्वतसे महान् देव जिनेन्द्र बिम्बके जटायुक्त सिर पर गंगाकी धार पडती है । इसी दृश्यके आश्रयपर पौराणिक पुरोहितोंने अनेक प्रकारकी कथायें गढ ली हैं। अनादिकालसे पड रहे जलके आघातसे जिनप्रतिमामें बालाग्र भी परिवर्तन नहीं होता है। ऐसी दिव्य शोभाको धार रहे जिनबिम्बको हम त्रियोगद्वारा नमस्कार करते हैं । गंगा नदीका जल एक प्रकार अभिषेक जल ही है । कुण्डके दक्षिणद्वारसे निकलकर म्लेच्छ खण्डोंमें बहती हुई विजयार्ध की खण्डप्रपात नामक गुफामें प्रवेश कर आर्यखण्डके पूर्वीय प्रान्त भागमें गमन करती हुई साढे बासठ योजन चौडी होकर लवणसमुद्रमें मिल गयी है । इसी प्रकार सिन्धु आदि नदियों का वर्णन समझना चाहिये । नदियोंकी उद्गम स्थलपर जितनी चौडाई है, अन्तमें जाकर उससे दशगुनी चौडाई होजाती है । चौडाईसे साढे बारहवें भाग या पचासवें भाग गहराई जान लेनी चाहिये । नदियों के निकलने और प्रवेश होनेके स्थानों पर तोरण बने हुये हैं । तोरणोंके उपर मनोज्ञ अकृत्रिम जिन प्रतिबिंब विराजमान हैं। नीचे दिक्कुमारी देवियां निवास करती हैं। कुण्डोंमें नदियां गिरती हैं। उन कुण्डोंमें स्थित होरहे द्वीपोंके ऊपर पांचसौ धनुष लम्बे शरीरके पद्मासनसे जिन प्रतिमायें विराजमान हैं । इस प्रकार गंगा आदि नदियोंका सामान्य वर्णन है । त्रिलोकसार आदि महान् ग्रन्थोंमें पूर्वाचार्योने विस्तारसे कहा है। छह खण्डवाले भरतक्षेत्रसम्बन्धी आर्यखण्डके मध्य भागमें जो छोटासा यह 43
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy