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________________ ३४४ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके कोई आक्षेप कर रहा है कि भरत क्षेत्रकी चौडाईका उत्तरवर्ती " भरतस्य विष्कंभो जंबूद्वीपस्य नवतिशतभागः " इस सूत्रमें कथन किया ही जावेगा। अतः यहां इस सूत्र द्वारा निरूपण करना व्यर्थ है । व्यर्थ सूत्रका उच्चारण नहीं करना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि यह सूत्र तो उत्तरवर्ती सूत्र द्वारा कही गयी जम्बूद्वीपके एकसौ नब्बे भाग की इतने परिमाण वाली संख्याका प्रतिपादन करनेके लिये है। इस सूत्रका प्रयोजन केवल उस एकसौ नब्बेवें भाग संख्याके लानेके उपायकी प्रतिपत्ति करा देना है । अर्थात्-एक लाख योजन चौडे जम्बूद्वीपकी एकसौ नब्बे शलावाओंमें एक शलाका भरत क्षेत्रको प्राप्त होती है। एक लाखमें एकसौ नब्बेका भाग देने पर पांचसी छब्बीस छह बटे उन्नीस योजन संख्या आजाती है। उस संख्याकी प्रतिपत्ति इस सूत्र द्वारा कर लेनी चाहिये । “ अस्मत् सिद्धान्तविद्यागुरवस्तु स्वल्पेऽप्याकाशे महत्याः भूमेरवगाहमङ्गीकृत्य न्यूनतरभूमि क्षेत्रप्रतिपादकमिदं सूत्रमित्याहुः "। मुझ टीकाकारके सिद्धांतविद्यागुरु पंडित गोपालदासजीका यह मंतव्य है कि " भरतस्य विष्कम्भो जंबूद्वीपस्य नवतिशतभागः " इस सूत्र करके आकाशकी नाप कर दी गयी है । भरत क्षेत्रका आकाश जम्बूद्वीपके एकसौ नब्बैवें भाग ही रहेगा, न्यून अधिक नहीं। हां, उतने ही आकाशमें न्यूनसे न्यून पांचसौ छब्बीस छह बटे उन्नीस योजनकी भूमि समा जायगी और उतने ही आकाशमें इससे दशों गुनी बडी भूमि भी समा सकती है। " ताभ्यामपरा भूमयोऽत्रस्थिताः ” इस सूत्रमें पड़ा हुआ " भूमयः " शब्द भी इसी सिद्धांतको पुष्ट करता है । एक हाथ लंबे चौडे आकाशमें पांच हाथकी लम्बी चौडी भूमि आसकती है । गुरुजीका यह विचार युक्तिपूर्ण प्रतीत होता है । संभव है कुछ दिनोंमें विज्ञान भी इसी तत्त्वका निर्णय करे, जब कि जैनसिद्धांत तो तभी युक्त समझा जाता है। अनन्त बादरस्कन्ध इस असंख्य प्रदेशी लोकमें धरे हैं । २९ अंक प्रमाण मनुष्य ढाई द्वीपमें निवास कर रहे हैं। __अतोन्ये वर्षधरादयः किंविस्तारा इत्याह । इस भरत क्षेत्रसे अन्य पर्वत या क्षेत्र अथवा नदी आदिक भला कितनी, कितनी, चौडाईको धारण किये हुये हैं ? ऐसी पृच्छा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं । तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहांताः ॥ २६ ॥ उस भरतक्षेत्रसे द्विगुने द्विगुने विस्तारको प्राप्त हो रहे कुलाचल पर्वत और हैमवत आदिक क्षेत्र हैं । यह व्यवस्था विदेह क्षेत्रपर्यंत पर्वत या क्षेत्रोंकी समझ लेनी चाहिये । वर्षधरशब्दस्य पूर्वनिपातस्तदानुपूर्व्यप्रतिपयर्थः वर्णानामानुपूर्येण इति निरुक्तकारवचनस्यानल्पान्तराणामन्येषामपि यथाभिधानमानानुपूर्पण पूर्वनिपातपतिपादनार्थत्वात् तथा प्रायः प्रयोगदर्शनात् ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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