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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३३१ आदि नामोंको धारनेवाले विशेष कमलोंके सहचरितपनेसे ह्रदोंका भी पद्म, महापन, आदि नामों करके निर्देश कर दिया जाता है । अथवा सिद्धान्त उपाय वही है कि जैसे हिमकी या महाहिमकी प्रधानता नहीं कर अनादि कालीन रूढिके सद्भावसे पर्वतोंका हिमवान्, महाहिमवान् , आदि व्यपदेश है, उसी प्रकार अनादि, अनन्त, रूढिके सद्भावसे इन हृदोंका नाम भी पन, महापद्म, आदि रूप करके . अनादि निधन प्रवर्त रहा है। पद्मादयो हृदास्तेषामुपरि प्रतिपादिताः। सूत्रेणेकेन विज्ञेया यथागभमसंशयम् ॥ १॥ श्री उमास्वामी महाराजने इस एक सूत्र करके उन पर्वतोंके ऊपर पद्म आदि हृदोंका शिष्योंकी व्युत्पत्ति के लिये प्रशस्त प्रतिपादन कर दिया है । विशेष वर्णना युक्त उन पर्वतोंको आगम अनुसार संशयरहित होते हुये समझ लेना चाहिये । अर्थात्-वे पर्वत पूर्व पश्चिम लम्बे हैं, उत्तर दक्षिण चौडे हैं नाना मणि, सुवर्ण, रजत धातुओंसे उनके तट चितेरे गये हैं। उनमें निर्मल स्वच्छ अक्षय जल भरा हुआ है उनके चारों ओर वनखण्ड शोभ रहे हैं ? जलप्रवाह तोरण आदि कहां कैसे व्यवस्थित हैं ? इन सब बातोंको जिनोक्त आगम अनुसार हृदयंगत कर लेना चाहिये । तत्र प्रथमो दूदः किमायामविष्कंभ इत्याह । उन छह ह्रदोंमें पहिला हृद कितनी लम्बाई और चौडाईको धार रहा है ? यो जिज्ञासा होने- ' पर श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्रको कहते हैं । प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्धविष्कंभो हृदः ॥ १६ ॥ उन छह ह्रदोंमें पहिला पद्म नामका हृद तो बडे योजनोंसे एक सहस्र योजन लम्बा और उससे आधा यानी पांचसौ योजन चौडा है। सूत्रपाठापेक्षया प्रथमः पद्मो ह्रदः योजनसहस्रायाम इति वचनादन्यथा तदैर्घ्यव्यवच्छेदः, तदर्धविष्कंभ इति वचनात् पंचयोजनशतविष्कंभत्वप्रतिपत्तिरन्यथा तद्विस्तारनिरासः प्रतिपत्तव्यः। हृदोंके प्रतिपादक पूर्व सूत्रमें कहे अनुसार पाठकी अपेक्षा करके पहिला गिना गया दक्षिण ओरका पद्म नामका हृद तो सहस्रयोजन लम्बा है, यों कथन कर देनेसे अन्य प्रकारों करके गढ ली गयी उसकी दीर्घताका व्यवच्छेद हो जाता है । अर्थात्-पद्म हृद हजार योजनसे न्यून य अधिक लम्बा नहीं है और यह लम्बाई पूर्व पश्चिम है, दक्षिण, उत्तर, की ओर नहीं है। ह्रदके दूसरे विशेषण उससे आधा चौडा यों कथन कर देनेसे पांचसौ योजन चौडाईकी प्रतिपात हो जाती है। अतः अन्य प्रकारोंसे कल्पित किये गये उसके विस्तारका निराकरण समझ लेना चाहिये ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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