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तत्वार्य लोकवार्तिके
रूढि होरहा हरि और विदेह क्षेत्रकी मर्यादाका हेतु है । नील वर्णका सम्बन्ध होनेसे पर्वत नील कहा जाता है, जो कि विदेहके उत्तर और रम्यकके दक्षिण भागमें विनिवेशको प्राप्त होरहा विदेह और रम्यक क्षेत्रका विभाजक है । रुक्म यानी सुवर्णका सद्भाव होनेसे पांचवें पर्वतका रुक्मी ऐसा नाम पड गया है जो कि रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्रके पृथग्भावको कर रहा है । शिखर यानी कूटोंके सद्भावसे छडे पर्वकी शिखरी यह संज्ञा है । जो कि हैरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रका मानो पुल ही बंधा हुआ है, ऐसा शिखरी पर्वत शोभ रहा है। इन सम्पूर्ण पर्वतों के नाममें यौगिक अर्थ गौण है, रूढि अर्थकी प्रधानता है।
हिमवदादीनामितरेतरयोगे द्वंद्वी अवयवप्रधानत्वात्, वर्षधरपर्वता इति वचनमवर्षधराणां वर्षधराणां पर्वतानामपर्वतानां च निरासार्थ । तद्विभाजिन इति वचनात् भरतादिवर्षविभागहेतुत्वासद्धिः, पूर्वापरायता इति विशेषणादन्यथायतत्वमनायतत्वं च व्युदस्तम् ।
__ हिमवान्, महाहिमवान् आदि शद्रोंका इतरेतर योग होनेपर द्वंद्व समाप्त होजाता है । क्योंकि "सर्वपदार्थप्रधानो द्वंद्वः” द्वंद्व समासके सम्पूर्ण घटकावयव पद प्रधान हुआ करते हैं। इस सूत्रमें “वर्षधरपर्वताः " यह निरूपण करना तो अवर्षधर पर्वत और वर्षधर अपर्वतोंका निराकरण करनेके लिये है। अर्थात्-व्यभिचार निवृत्ति करनेवाले विशेषणोंको सार्थक समझा जाता है । " नीलोत्पलं " यहां नील कमलमें नील शब्द तो अनील उत्पलों यानी लाल, श्वेत कमलोंकी व्यावृत्ति कर रहा है और उत्पल शद्ध तो नील होरहे अनुत्पलों जामुन, भोरा आदिकी निवृत्ति करनेको चिल्ला रहा है। इसी प्रकार जंबूद्वीपमें कई पर्वत, यमकगिरी, शद्बवान् , विकृतवान् , गन्धवान् , माल्यवान् , गन्धमादनगजदत, सौमनसगजदंत, सुदर्शन मेरु ये पर्वत होते हुये भी क्षेत्रोंके विभाजक नहीं होनेके कारण वर्षधर नहीं हैं। अतः अवर्षधर पर्वतोंका व्यवच्छेद करने के लिये हिमवान् , महाहिमवान् आदिमें वर्षधर पर्वतपनेका विधान सार्थक है, तथा इसी जंबूद्वीपमें भरत आदि क्षेत्रोंके उत्तर, दक्षिण, भागोंका विभाग जैसे इन हिमवान आदि पर्वतोंने किया है, उसी प्रकार उक्त क्षेत्रों के पूर्वापर विभागको करनेवाले पूर्वापर लवण समुद्र भी तो हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रोंका तो तीनों ओरसे समुद्रने विभाग कर रक्खा है । विदेह क्षेत्रमें बडे भद्रसाल वनके साथ देवकुरु, उत्तरकुरुका विभाग गजदंत पर्वतोंने कर रक्खा है । इसी भरतमें दक्षिणभरत या उत्तरभरतके विभाजक विजया और षट्खण्डोंका विभाग करनेवाली गंगा सिन्धु नदियां भी हैं। जम्बूद्वीपके बत्तीस विदेहोंमें वत्सा, सुवत्सा, आदि एक एक जनपद ही भरत और ऐरावत क्षेत्रोंसे कई गुना बडा है, जिनको कि वक्षार पर्वत या विभंगा नदियोंने न्यारा २ विभक्त बना रखा है । इस युक्ति द्वारा पर्वत भिन्न समुद्र आदि भी वर्षधर माने जा सकते हैं । अतः वर्षधर पर्वत कह देनेसे हिमवान् आदिमें वर्षधर अपर्वतपनेका निराकरण हो जाता है । इस सूत्रमें “ तद्विभाजिनः ” यो कथन कर देनेसे हिमवान् आदि पर्वतोंको भरत आदि क्षेत्रोंके विभागका हेतुपना सिद्ध हो जाता है तथा " पूर्वापरायता” पूर्व, पश्चिम, लम्बे इस विशेषणसे दूसरे ढंगका लम्बाईपन और लम्बाई रहितपनका व्युदास कर दिया गया है । अर्थात्-ये पर्वत पूर्व