SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः ३२७ पश्चिमकी ओर लम्बे पडे हुये हैं, दक्षिण उत्तर या विदिशाओंकी ओर लम्बे नहीं हैं । तथा ये पर्वत लम्बे नहीं होकर गोल चौकोर, तिकोने, आकारवाले होय, इस सम्भावनका भी आयतपदसे प्रत्याख्यान हो जाता है । अतः ये विशेषण उन पर्वतोंकी तादृश सिद्धि करनेमे सद्धेतु बना लिये जांय या उन लक्ष्यभूत पर्वतोंके निर्दोष लक्षण भी बना लिये जाय तो कोई क्षति नहीं होगी। इस बातका हम जैन न्यायसिद्धान्त अनुसार ढिंढोरा पीटनेके लिये संनद्ध हैं। किं परिणामास्ते इत्याह । वे पर्वत किस धातुके बने हुये परिणाम यानी विवर्त हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको बोलते हैं । हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ॥ १२॥ ये हिमवान् , महाहिमवान् , आदि पर्वत यथाक्रमसे हेममय, अर्जुनमय, तपनीयमय, वैडूर्यमय, रजतमय, हेममय हैं । विकार या प्राचुर्य अर्थमें मयट् प्रत्यय किया है । इन पर्वतोंके वर्ण विशेष भी उन उन धातुओंके रंगके समान हैं । अवयव या विकार अर्थमें मयट् प्रत्यय हो जाता है। हेममयो हिमवान् ; अर्जुनमयो महाहिमवान् , तपनीयमयो निषधः, वैडूर्यमयो नीला, रजतमयो रुक्मी, हेममयः शिखरीति । हेमादिपरिणामा हिमवदादयः तथानादिसिद्धत्वादन्यथोपदेशस्य परमागमप्रतिहतत्वात् । चीन देशीय कौशेयके समान वर्णको धारनेवाला हेममय हिमवान् पर्वत है । अर्जुन जातिके सुवर्ण समान रंगको धारनेवाला महाहिमवान् पर्वत शुक्लवर्णका अर्जुनमय है, तपनीय जातिके सुवर्णकी प्रचुरताको धारनेवाला निषध है, जो कि मध्याह्नकालके सूर्यकी प्रभा समान आभाको धारता है, मयूरप्रीवाके वर्ण समान वैडूर्यमणिमय नीला नीलपर्वत है, चांदीका विकार हो रहा शुक्ल रुक्मी पर्वत है और हिमवान्के समान हेममय थोडा पीला चीनाई रेशमके समान कान्तिको धारनेवाला हिममय शिखरी पर्वत है । अर्थात्-वर्तमानमें सुवर्ण स्थूलतासे एक प्रकारका प्राप्त हो रहा है। किन्तु सुवर्ण धातु कई रंग और अनेक प्रकारके गुणोंको धारनेवाली कई जातिकी मानी गयी है। सहस्रनाममें भगवान्के शरीर कान्तिकी परनिमित्त या स्वयं भिन्नताओंको धारनेवाली मानकर कई जातिके सुवर्णोसे उपमा दी गयी है । " भर्माभः, सुप्रभः, कनकप्रभः, सुवर्णवर्णो, रुक्मामः, सूर्यकोटिसमप्रभः, तपनीयनिभस्तुंगो वालार्काभोऽनलप्रभः, संध्याभ्रबभ्रुखैमाभस्तप्तचामीकरच्छविः, निष्टतकन. कच्छायः कनत्काञ्चनसन्निभः, हिरण्यवर्णः स्वर्णाभः, शातकुम्भनिभप्रभः, धुग्नभा जातरूपाभो दीप्तजाम्बूनदद्युतिः, सुधौतकलधौतश्रीः प्रदीप्तो हाटकयुतिः " इन स्तुतियोंके श्लोकों द्वारा प्रतीत हो जाता है कि सुवर्ण कई रंग और अनेक कान्तियोंसे युक्त है। भले ही अमरकोषमें " स्वर्ण सुवर्ण
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy