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________________ ३२२ तार्थ लोकवार्त ही आम्नायका अतिक्रमण नहीं कर कहे जा चुके जम्बूद्वीपका प्रकाशक हो सकता है। इस प्रकार क सूत्र द्वारा जंबूद्वीपका यों सूचन कर दिया जा चुका है । क्योंकि इस आगममें सभी प्रकारोंसे बाधक प्रमाणोंका अभाव है । तत्र कानि क्षेत्राणीत्याह । उस जंबूद्वीपमें कितने निवासक क्षेत्र हैं ? ऐसी विनीत शिष्यकी बुभुत्सा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं । भरतहैमवतहरिविदेहरम्य कहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ उस जंबूद्वीपमें छह कुलाचलोंसे विभक्त हो रहे भरत वर्ष १ हैमत वर्ष २ हरिवर्ष ३ विदेह वर्ष ४ रम्यक वर्ष ५ हैरण्यवत वर्ष ६ और ऐरावत वर्ष ७ ये सात क्षेत्र पूर्व पश्चिम लंबे और उत्तर, दक्षिण, चौडे व्यवस्थित होरहे हैं । भरतक्षत्रिययोगाद्भरतो वर्षः अनादिसंज्ञासंबंधत्वाद्वा आदिमदनादिरूपतोपपत्तेः । स च हिमवत्समुद्रत्रयमध्ये ज्ञेयः । तत्र पंचाशद्योजनविस्तारस्तदर्धोत्सेधः सक्रोशषड्योजनावगाहो रजताद्रिर्विजयार्धोन्वर्थः सकलचक्रधरविजयस्यार्धसीमात्मकत्वात् । दक्षिण ओरके पहिले क्षेत्रकी " भरत " यह संज्ञा कैसे बन रही है ? इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक अवसर्पिणीके चौथे कालकी आदिमें भरत नामका पहिला चक्रवर्ती इसके छह खण्डों को भोगता है । अतः भरत नामके क्षत्रियका स्वस्वामिभाव सम्बन्ध हो जानेसे पहिले क्षेत्रको भरतवर्ष कहते हैं, अथवा दूसरा सिद्धान्त उत्तर यह है कि जगत् अनादि है, अनादिकालीन निज परिणतिके अनुसार इसकी भरतसंज्ञा चली आ रही है। वैयाकरणोंने जैसे शके व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न पक्ष स्वीकार किये हैं, मीमांसक और मांत्रिकोंने तो शद्वकी अनादितापर ही सन्तोष प्रकट किया है । उसी प्रकार भरतक्षत्रियके योगसे आदिमान् स्वरूपसे सहितपना अथवा अनादिकालीन संज्ञाका सम्बन्ध हो जानेसे भरतवर्षको अनादिस्वरूपपना समुचित समझ लिया जाता है । वह भरतवर्ष तो उत्तर दिशामें हिमवान् और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, दिशाओं में तीनो ओरसे धर रहे तीन समुद्रोंके मध्यमें विराज रहा जान लेना चाहिये । उस भरतक्षेत्र के ठीक बीचमें फैल रहा पूर्व, पश्चिम, लम्बा और दक्षिण उत्तर पचास योजन चौडा तथा उससे आधा पच्चीस योजन ऊंचा एवं एक कोससहित छह योजन यानी सवा छह योजन गहरा रजतबहुल एक विजयार्द्ध नामक पर्वत है जो कि सम्पूर्ण चक्रवर्ती के विजयकी आधी सीमा स्वरूप होनेसे " विजयार्द्ध ” इस अन्वर्थ नामको धारता 1 अर्थात् — उसका नाम अपने वाच्य अर्थको लिये हुये ठीक घट जाता है । हिमवतोऽदूरभवः सोस्मिन्नस्तीति वा हैमवतः स च क्षुद्र हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये, तन्मध्ये शब्द्भवान् वृत्तवेदाढ्यः । हरिवर्णमनुष्ययोगाद्धरिवर्षः स निषधमहाहिमवतोर्मध्ये,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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