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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३२१ " वृत्तः " यानी चकरेके समान गोल है। गेंदके समान गोल या चौकोर, तिकोना, आदि संस्थानोंको धारनेवाला नहीं है । यहां कोई आक्षेप करता है कि उस जम्बूद्वीपका घेरा देकर फैल रहे द्वीप समुद्रोंकी आकृतिको पूर्व सूत्रमें कंकणके समान कह देनेसे ही उस जम्बूद्वीपका चाकीके समान गोलपना स्वतः सिद्ध हो जाता है । पुनः इस सूत्रमें “वृत्त:" यानी रुपयाके समान गोल कहनेकी क्या आवश्यकता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि चौकोर, छह कोन, तिकोने आदि आकारवाले पदार्थको घेरा देनेवाले अन्य द्वीप समुद्रोंके भी कंकण आकृतिधारीपनका कोई विरोध नहीं है। जैसे कि चौकोर प्रासादको गोल वेदिकासे घेरा जा सकता है । गोल फैली हुई गढकी ऊंची भीतोंसे भीतरके तिकोने, छह पैलू महल या कोठियां भी घेर ली जाती हैं । गोल सूर्य मण्डलपर अनेक चौकोर महल बने हुये हैं। भले ही कुछ स्थान रीता पड़ा रहा रहे, इससे हमें क्या प्रयोजन है ? घेरनेवाला पदार्थ दूरवर्ती गोल होकर मध्यवर्ती कैसे भी तिकोने, चौकोने, पदार्थको परिक्षेप कर बैठेगा । देखो छह कुलाचलों या देवारण्य, भूतारण्यको, जम्बूद्वीपकी वेदिका वेढ रही है, अतः जम्बूद्वीपकी ठीक रचनाको समझाने के लिये इस सूत्रमें वृत्त शब्द कहा है । इस सूत्रमें यों सौ हजार ( एक लाख ) योजन चौडे जम्बूद्वीपका कथन कर देनेसे शेष बचे हुये समुद्र आदिकोंकी उस जम्बूद्वीपसे दुगुनी दुगुनी, चौडाई और पूर्व पूर्वका परिक्षेप करना आदिका निर्णय कर दिया समझ लिया जाता है । अर्थात्- शेष समुद्रोंकी दूनी दूनी चौडाई किसकी अपेक्षासे समझी जाय ? इसके लिये पहिले जम्बूद्वीपको एक लाख योजन चौडा कहा है । द्वीप समुद्रोंकी दूनी दूनी चौडाई तो ग्राम, नगर, नदी, पर्वत, आदिके समान रचना होनेपर भी सम्भव जाती है । अतः " पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः ” कहना सार्थक है तिकोने, चौकोने, होम कुण्डोंकी कटनियोंके समान दूनी दूनी चौडाई या पूर्व पूर्वको घेरे रहना तो त्रिकोण, चतुष्कोण पदार्थका भी संभव जाता है । अतः द्वीप समुद्रोंकी आकृति वलयके समान कहना वस्तुस्थितिका द्योतक है और यों इस प्रकार जम्बूद्वीपका वर्णन कर देनेपरः तन्मध्ये मेरुनाभिः स्याज्जबूद्वीपो यथोदितः। सूत्रेणेकेन निशेषकुमतानां व्यपोहनात् ॥१॥ उन समुद्र द्वीपोंके मध्यमें मेरुको नाभिके समान धारनेवाला जम्बूद्वीप है जो कि आर्ष आम्नाय अनुसार हमने एक सूत्र करके स्पष्ट वखान दिया है, इतनेसे ही सम्पूर्ण खोटे मतोंका निरा. करण होजाता है। __सकलसर्पथैकांतनिराकरणे हि न्यायबलाद्विहिते स्याद्वाद एव व्यवतिष्ठते परमागमः, स च यथोदितजंबूद्वीपप्रकाशक इति भवेदेवं मूत्रितो जंबूद्वीपः सर्वथा बाधकाभावात् अत्र । सर्वथा एकान्तवादी पण्डितमन्योंके सम्पूर्ण एकान्त मतोंका न्यायकी सामर्थ्यसे निराकरण कर चुकनेपर जिनोक्त स्याद्वाद सिद्धान्त ही परम आगम व्यवस्थित होजाता है, और वह आप्तोक्त आगम
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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