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________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः - ३१७ अनिष्ट संस्थानकी निवृत्ति होजाती है । कोई कोई अनुमान प्रेमी विद्वान् साधारण स्वरूपके प्रतिपादक विशेषणोंका निरादर कर अव्यभिचारी उद्देश्य दलको हेतु और विधेय दलको साध्य बनाते हुये सर्वत्र विधायक वाक्योंको अनुमान मुद्रामें गढ लेते हैं । तदनुसार इस सूत्र में कहे गये १ द्विर्द्विर्विष्कंभाः, २ पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः, ३ वलयाकृतयः, इन तीन विशेषणोंके साथ और जम्बूद्वीप समुद्र इस विशेष्य दल के साथ लक्ष्यलक्षणभाव और हेतु हेतुमद्भाव बना लेना चाहिये। तभी लक्षण के अव्याप्ति अतिव्याप्ति, असम्भव, दोषोंका निवारण और हेतुके व्यभिचार, विरोध आदि दोषों का प्रत्याख्यान करना अच्छा शोभता है। यहां किसीकी शंका है कि आपने जम्बूद्वीपको आदि लेकरके सभी द्वीप समुब्रोंको उद्देश्य दलमें डालकर विधेयांश रूपसे यह सूत्र कहा है, किन्तु सबके आदिवर्ती जम्बूद्वीप के दूना चौडापन और पूर्वको घेरे रहना तथा कँकणकीसी आकृतिका धारकपना नहीं घटित होता है । इ कारण ये लक्षणकोटिमें पडे हुये तीनों विशेषण अव्याप्ति दोषसे ग्रसित हैं, अथवा अनुमानमुद्रा अनुसार तुम्हारे तीनों हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास हैं । यदि अतद्गुण सम्यग्ज्ञान बहुब्रीहि समासका आश्रय कर जिनके आदिमें जम्बूद्वीप हैं यों अर्थ करते हुये जम्बूद्वीपको टाल दिया जायगा तो लवणसमुद्र भी टल जायगा, जो कि इष्ट नहीं है । साथमें जम्बूद्वीपके शुभनामपनका और द्वीपपनका भी निराकरण बन बैठेगा। अतः << शुक्लवाससमानय " इसके समान तद्गुण संविज्ञान बहुब्रीहिका आश्रय ही लेना पडेगा । ऐसी दशामें हमारी शंका परिपुष्ट होजाती है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि जम्बूद्वीप को छोडकर अन्य सम्पूर्ण द्वीपसमुद्रोंमें ये तीनों लक्षण घटित होते हैं। जब कि जम्बूद्वीपके लिये “ तन्मध्य मेरुनाभिः ” इत्यादि अव्यवहित उत्तरवर्ती सूत्रका सद्भाव है तो उस अपवाद मार्गको टालकर उत्सर्ग विधियां प्रवर्तेगी । इन तीनों लक्षणोंका अपवाद कर जम्बूद्वीपका लक्षण निकट भविष्यमें कह दिया जायगा, अतः अव्याप्ति दोषको बालाम्र भी स्थान नहीं मिलता है । " अपवादपथं परित्यज्योत्सर्गविधयः प्रवर्तन्ते " 1 क पुनरिमे द्वीपसमुद्रा इत्याह । फिर ये अनेक द्वीप और असंख्य समुद्र भला कहां स्थित हो रहे हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी समाधानको कहते हैं । सप्ताधो भूमयो यस्मान्मध्यलोको बलाद्गतः । तत्र द्वीपसमुद्राः स्युः सूत्रद्वितयवर्णिताः ॥ १ ॥ जिस कारण से अधोलोकमें सात नीचे नीचे भूमियां कहीं जा चुकी हैं । अतः बिना कहे ही सामर्थ्य से अर्थापत्त्या मध्यलोक जान लिया ही जाता है । अर्थात् — अधोलोकसे ऊपर ऊर्ध्वलोक नियत ही है । तथा ऊर्ध्व और अधः के बीचका मध्यलोक विना कहे यों ही समझ लिया जाता है । उस मध्यलोकमें अनेक द्वीप, समुद्र, हो सकते हैं जो कि सूत्रकारने उक्त दो सूत्रोंसे वर्णित कर दिये हैं ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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