SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके गोद, आदि शुभ नामवाले द्वीप समुद्र हैं । विटद्वीप, क्षारद्वीप, उलूकद्वीप, वक, विडाल, उष्ट्र, तप्त, संप्रज्वलित, आदि अशुभ संज्ञाओंको धारनेवाले द्वीप समुद्र नहीं हैं। किं विष्कंभाः किं परिक्षपिणः किमाकृतयश्च ते इत्याह । __ यहां प्रश्न कि जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदिक कितनी कितनी चौडाईको धारते हैं ? और किस किसका परिक्षेप (घेरा ) रखनेवाले हैं ? तथा कैसी कैसी आकृति यानी रचनाको प्राप्त हो रहे हैं ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रका उच्चारण करते हैं । द्विििवष्कंभाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः॥८॥ जम्बूद्वीपको आदि लेकर असंख्याते द्वीप और लवण समुद्रको आदि लेकर असंख्यात समुद्र ये सब दूने दूने विष्कम्भ यानी विस्तारको लिये हुये विराज रहे हैं। पहिले पहिले द्वीप या समुद्रको परला परला द्वीप या समुद्र परिक्षेप यानी वेष्टित ( लपेटे ) किये हुये है तथा ये सभी कंकणकीसी आकृतिको धारे हुये चारों ओरसे गोल हैं। द्विद्धिरिति वीप्साभ्यावृत्तेर्वचनं विष्कंभद्विगुणत्वव्याप्त्यर्य, पूर्वपूर्वपरिक्षोपिण इति वचनादनिष्टनिवेशनिवृत्तिः, वलयाकृतय इति वचनाच्चतुरस्रादिसंस्थाननिवृत्तिः। जंबूद्वीपस्य द्विर्विकंभत्वपूर्वपरिक्षेपित्ववलयाकृतित्वाभावादव्यापीनि विशेषणानीति चेत् न, जंबूद्वीपस्यैतदपवादलक्षणस्य वक्ष्यमाणत्वात् । ' तन्मध्ये ' इत्यादि सूत्रस्यानंतरस्य सद्भावात् । - सूत्रमें द्विर् द्विर् इस प्रकार वीप्सापूर्वक अभ्यावृत्ति होनेसे ( का ) जो कथन किया गया है वह चौडाईके दूनेपनको व्यापक करनेके लिये है । एक लाख योजन चौडे जम्बूद्वीपसे दूना दो लाख योजन चौडा लवणसमुद्र है, और लवण समुद्रसे दूना चार लाख योजन चौडा धातुकी खण्ड द्वीप है। इस प्रकार दूनी दूनी चौडाई सर्वत्र समझ लेनी चाहिये । यहां द्विः द्विः ऐसी वप्सिा और अभ्यावृत्तिका सूचक सुच् प्रत्यय भी दो बार किया है इससे अन्तके स्वयम्भू रमणसमुद्र पर्यंत अधिक दूरवर्ती असंख्याते स्थानोंमें दूनी दूनी चौडाईका अन्वय वहा दिया जाता है, जिससे पचास, सौ, द्वीप ही दूने दूने चौडे हो सकते हैं, आगेके द्वीप नहीं, इस अनिष्ट अर्थकी निवृत्ति होजाती है। शब्दप्रयोग करनेवाले मनुष्यकी एक ही बार अनेकोंमें व्याप्त करनेकी इच्छाको वीप्सा कहते हैं । " वीप्साथ पदस्य " इस सूत्रसे द्विः होजाता है । वीप्सा अर्थ द्योत्य होनेपर पदको द्वित्व होजाता है । तथा सूत्रकारके " पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः” इस वचनसे अनिष्ट सन्निवेशकी निवृत्ति होजाती है, जिससे कि ग्राम उपवन, नगर, प्रासाद, आदिके समान उन दीप समुद्रोंका अनिष्ट विनिवेश नहीं समझ लिया जाय । जम्बूद्वीप लवण समुद्रसे और लवण समुद्र धातुकी खण्डसे वेष्टित होरहा है। यों अन्तके स्वयम्भू रमणतक लगा लेना । तथा " वलयाकृतयः " इस वचनसे चौकोर, तिकोने, छहकोने, अठपैल, आदि
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy