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________________ तत्त्वार्थ लोकवार्तिके रत्नप्रभादिभिरानुपूर्व्येण संबंधो यथाक्रमानुवृत्तेः । नरकप्रसंगस्तेष्विति वचनादिति चेन्न, रत्नप्रभाद्युपलक्षितानि हि नरकाणि त्रिंशच्छतसहस्रादिसंख्यानि तेष्वित्यनेन परामृश्यंते, साहचर्याद्वा ताच्छन्द्यात्सिद्धिः । ततो यथोक्तसंख्यनरकसाहचर्याद्रत्नप्रभादयो नरकशब्दवाच्याः प्रतीयते । यद्येवं रत्नप्रभादिष्वधिकरणभूतासु नरकाणां स्थितिः प्रसक्तेति चेत्, सत्त्वानामिति वचनात् । परोत्कृष्टा न पुनरिष्टा परशब्दस्येष्टवाचकस्येहाग्रहणात् । ३१२ दूसरे सूत्र में हुये " यथाक्रमम् " पदकी अनुवृत्ति कर लेनेसे एक आदिकों का रत्नप्रभा आदिके साथ आनुपूर्व्य करके संबंध कर लेना चाहिये । यदि यहां कोई यों आक्षेप करें कि सूत्रकी आदिमें “ तेषु ” ऐसा वचन है । इस कारण तत्पदद्वारा नरकोंका परामर्श किया जाकर नरकों की स्थितिको एक, तीन, सागर आदिके होनेका प्रसंग आवेगा । प्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि रत्नप्रभा आदिके आधेय होकर उपलक्षित हो रहे जो तीस लाख, पच्चीस लाख आदि संख्यावाले नरक हैं, पूर्व परामर्शक तेषु इस पदकरके उन नरकों का ही परामर्श किया जाता है 1 अथवा सहचरपनेसे भी उसी शब्दद्वारा कहाजानापन हो रहा है । सहारनपुरका साहचर्य होनेसे सहारनपुर की स्टेशन को भी सहारनपुर कह दिया जाता है, यहां के गन्नों को भी सहारनपुर कह देते हैं । अतः रत्नप्रभा आदि भूमियोंको भी नरक शद्ब द्वारा कथन किये जानेकी सिद्धि होजाती है । तिस कारण पूर्व में यथायोग्य कही गयी संख्याको धारनेवाले नरकों के 1 साहचर्यसे रत्नप्रभा आदि भूमियां नरक शब्द द्वारा कहीं जारही प्रतीत होजाती हैं । जैसे वम्बईसे सहचरित होरहे प्रान्त देशको बम्बई कह देते हैं । पुनः किसीका आक्षेप उठता है कि इस प्रकार तत् शब्द वाच्य नरकोंसे यदि रत्नप्रभा आदि भूमियों को पकडा जायगा तब तो अधिकरण हो चुकी रत्नप्रभा आदि भूमियोंमें आधेय होरहे नरकों की स्थिती एक, तीन, आदि सागरोंकी प्रसंगप्राप्त हुयी । यह स्थिति नारकी जीवोंकी तो नहीं समझी गयी । यों कहने पर तो प्रन्थकार कहते हैं कि भाई, इसीलिये तो सूत्रकारने " सत्त्वानां " यह पद ग्रहण किया है । यह स्थिति उन नरकों में रहनेवाले प्राणियों की है, नरकोंकी नहीं। नरकबिले तो अनादिसे अनन्त कालतक जहांके तहां स्थित हो रहे हैं । परा का अर्थ उत्कृष्ट है फिर इष्ट अर्थ नहीं। क्योंकि इष्ट अर्थको कहनेवाले पर शद्वका यहां ग्रहण नहीं किया गया है। अतः यह नारकी जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति यों समझ लेनी चाहिये । कुतः सोत्कृष्टा स्थितिः सत्त्वानां प्रसिद्धेत्याह । कोई पूछता है कि नारक प्राणियोंकी वह उत्कृष्ट स्थिति भला किस प्रमाण या युक्तिसे प्रसिद्ध है ? बताओ, ऐसी ओरका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तरवार्त्तिकों द्वारा समाधान कहते हैं । नरकेषूदितैकादिसागरोपम सम्मिता । स्थितिरस्त्यत्र सत्त्वानां सद्भावाचाहगायुषः ॥ १ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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