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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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संक्षेपादपरा त्वग्रे वक्ष्यमाणा तु मध्यमा । सामर्थ्याबहुधा प्रोक्ता निर्णतव्या यथाक्रमं ॥ २ ॥
इन नरकोंमें नारक प्राणियोंकी स्थिति ( पक्ष ) कहे जा चुके अनुसार एक, तीन, आदि • सागरोपमोंसे भले प्रकार नाप ली जाती है ( साध्य ) जीवोंके तिस तिस प्रकारकी आयुका सद्भाव हो जानेसे ( हेतु ) इस अनुमान द्वारा नारकियोंकी आयु साध दी जाती है । नारकियोंने पूर्वजन्ममें नरकायुःकर्मका इतना बड़ा भारी पुद्गलपिण्ड बांध लिया है जिसका कि क्रमक्रमसे उदय आनेपर हजारों वर्ष या असंख्याते वर्षोंमें भोग हो पाता है । अंजुलीका जल शीघ्र निकल जाता है, किन्तु बडी टंकीमें भरे हुये पानीको बूंद बूंद अनुसार निकलते हुये बहुत दिन लग जाते हैं । इस सूत्रमें नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया है । यदि यहां ही जघन्यस्थितिका वर्णन किया जाता तो ग्रन्थका विस्तार हो जाता । अतः संक्षिप्तग्रन्थसे जघन्य स्थिति तो आगे चतुर्थ अध्यायमें कही जानेवाली है। जो कि " नारकाणां च द्वितीयादिषु, दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां" इन दो सूत्रों करके कह दी जायगी । उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थितिका कण्ठोक्त निरूपण कर देने मात्रसे विना कहे ही सामर्थ्यसे बहुत प्रकारकी मध्यमा स्थिति अच्छी कह दी गयी समझ ली जाती है, जो कि सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार चले आ रहे आगम अनुसार निर्णय कर लेने योग्य हैं । नरकोंके उनचास पटलोंमें भी आगम अनुसार जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितियोंका निर्णय कर लेना चाहिये ।
परा स्थितिरस्ति प्राणिनां परमायुष्कत्वान्यथानुपपत्तेः । परमायुष्कत्वं पुनः केषांचित्तदेतुपरिणामविशेषात्स्वोपात्ताद्भवन्न बाध्यते मनुष्यतिरश्चामायुःप्रकर्षप्रसिद्धः। तत्र रत्नप्रभायां नरकेषु सत्त्वानां परास्थितिरेकसागरोपमप्रमिताः, शर्करामभायां त्रिसागरोपमप्रमिताः, वालुकाप्रभायां सप्तसागरोपमप्रमिताः, पंकप्रभायां दशसागरोपमप्रमिताः, धूमप्रभायां सप्तदशसागरोपमप्रमिताः, तमम्प्रभायां द्वाविंशतिसागरोपमप्रमिताः, महातमःप्रभायां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमिताः इति वचनसामर्थ्यान्मध्यमा स्थितिरनेकधा यथागमं निर्णीयते । जघन्यायाः स्थितेस्त्वत्र संक्षेपाद्वक्ष्यमाणत्वादित्यलं प्रपंचेन ।
किन्हीं विवादापन्न प्राणियोंकी स्थिति उत्कृष्ट है ( प्रतिज्ञा ) अन्यथा परम आयुका धारना बनता नहीं है। फिर किन्हीं किन्हीं जीवोंके परम आयुष्यका धारकपना तो उसके कारणभूत हो रहे निज उपार्जित परिणाम विशेषोंसे हो रहा बाधित नहीं है । क्योंकि कतिपय मनुष्य और तिर्यचोंके आयुष्यका प्रकर्ष हो रहा प्रसिद्ध ही है । अर्थात्-अपने अपने विशेष परिणामोंद्वारा अधिक स्थिति वाले आयुष्य कर्मका उपार्जन कर जीव उत्कृष्ट स्थितियोंको धार रहे प्रसिद्ध हैं । उन स्थितियोंमें यह विवरण समझियेगा कि रत्नप्रभा विन्यासको प्राप्त हो रहे नरकोंमें स्थित प्राणियोंकी एक सागरोंपमको
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