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________________ तत्त्वाचिन्तामणिः ३०५ जगत्में अशुभ लेश्या, अशुभ परिणाम, अशुभ देह, आदिको धारनेवाले जीव तिर्यंच हैं, उन तिर्यचोंसे भी अतिशय करके अशुभ लेश्या आदिको धारनेवाले जो कोई भी प्राणी हैं, उन संसारी जीवोंमें वे प्राणी नारकी समझे जाते हैं । इस ढंगसे श्री विद्यानन्द स्वामीने श्री उमास्वामी भगवान्के सूत्रको लक्ष्य लक्षण भाव या हेतु साध्यभावके अनुसार घटित कर दिया है । तियेचस्तावदशुभलेश्याः केचित्मसिद्धास्ततोप्यतिशयेनाशुभलेश्याः प्राणिनो नारकाः संभाव्यते अशुभतरलेश्याः, प्रथमायां भूमौ एवमशुभतरपरिणामादयोपीति प्रसिद्धा एव प्रतिपादितविशेषाधारा नारकाः, ततोप्यतिशयेनाशुभलेश्यादयो द्वितीयायां, तृतीयायां, ततोपि चतुथ्यो, ततोपि पंचम्यां, ततोपि षष्ठ्यां, ततोपि सप्तम्यामिति । गिडार, मकडी, चिरईया, कौआ, सांप, भेडिया, बिल्ली, उल्लू आदि किन्हीं किन्हीं तिर्यंचोंके तो अशुभ लेश्या हो रही प्रसिद्ध ही है । उनसे भी अतिशय करके अशुभ लेश्यावाले नारकी प्राणी संभावित हो रहे हैं । अतः पहली पृथ्वीमें नारकियोंको अशुभतर लेश्यावाला कहा जाता है, इसी प्रकार अनेक तिर्यचोंके परिणाम, शरीर, वेदना, आदि भी अशुभ प्रसिद्ध ही होरहे हैं। उनकी अपेक्षा अत्यधिक अशुभ परिणाम आदिको धारनेवाले पहिली भामके नारकी जीव कहे जा चुके विशेषोंके आधार होरहे प्रसिद्ध हो जाते हैं। उन पहिली पृथिवीवाले नारकियोंसे भी अतिशय करके अशुभ लेश्या, परिणाम, आदिको धारनेवाले जीव दूसरी पृथिवीमें हैं, उन दूसरीवालोंसे भी तीसरीमें, उस तीसरीसे भी चौथीमें, उस चौथीसे भी पांचवीमें, उस पांचवीसे भी छठी भूमिमें और उस छठीसे भी सातवीं भूमिमें नारकियोंके अशुभ लेश्या, परिणाम आदिक अतिशय करके बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार घनांगुलके द्वितीय वर्गमूळसे गुणित जगच्छेणी प्रमाण संपूर्ण नारकियोंके लेश्या, परिणाम आदिक नीचे नीचे भूमियोंमें अधिक अधिक निकृष्ट होते चले गये हैं। कथं पुनरेतदशुभत्वतारतम्यं सिद्धमित्याह । यह लेश्या आदिकोंके अशुभपनका उत्तरोत्तर तरतम रूपसे बढ़ना फिर किस प्रमाणसे सिद्ध है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्तिकको कहते हैं। संक्लेशतारतम्येनाशुभतातारतम्यता। सिध्द्येदशुभलेश्यादितारतम्यमशेषतः ॥२॥ नीचे नीचे भूमियोंमें नारकी जीवोंके संक्लेशकी तरतमतासे लेश्या आदिकोंके कारण अशुभपन का तस्तमपना सिद्ध होजाता है, और उसी तरतमतासे अशुभ लेश्या आदिकोंका तरतमपना सम्पूर्ण रुपसे सध जावेगा। 30
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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