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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३०७ ननु च कोपोत्पत्तौ सत्यां परस्परं दुःखोदीरण दृष्टं नान्यथा न च तेषां तदुत्पत्तौ कारणमस्ति न चाकारणिका सातिप्रसंगादिति चेन्न, निर्दयत्वात्तेषां परस्परदर्शने सति कोपो - त्पत्तेः श्ववत् । सत्यंतरंगे क्रोधकर्मोदये बहिरंगे च परस्परदर्शने तेषां कोपोत्पत्तिर्नाहेतुका यतोतिप्रसंगः स्यादिति । י कोई शिष्य शंका करता है कि तीव्र कोपकी उत्पत्ति होते संते, तीतरों, भैसों कुत्तों मुर्गो आदि के समान कतिपय जीवोंमें परस्पर दुःखकी उदीरणा ( प्रवाहित होना ) देखी गयी है । अन्यथा. नहीं । यानी क्रोधकी उत्पत्ति हुये विना सज्जन, छिरिया, आदिकों के दुःख उफनता हुआ नहीं देखा गया है । जब कि उन नारकी जीवों के उस क्रोधकी उत्पत्ति होनेमें कोई कारण ही नहीं है तो ऐसी दशा में कारणको निमित्त नहीं पाकर वह क्रोधकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । यदि कारणों के विना ही निष्कारण क्रोध उपज बैठेगा, तब तो अतिप्रसंगदोष हो जायगा । अर्थात् - सज्जन साधु-: पुरुषों में भी तीव्र क्रोध पाया जावेगा । अतः क्रोधके विना नारकियोंमें दुःखकी उदीरणा नहीं हो सकती है | आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि निर्दय होनेसे कुत्तों के समान उन नारकियों के परस्पर एक दूसरे को देखते सन्ते ही कोपकी उत्पत्ति हो जाती है । अन्तरंग कारण 1 पौगलिक कर्मका उदय होनेपर और बहिरंगकारण परस्परका दर्शन होनेपर उन नारकियोंके क्रोध की उत्पत्ति हो रही हेतुओंसे रहित नहीं है, जिससे कि साधुओंमें भी इसी प्रकार क्रोध उपजाने का अतिप्रसंग होता । क्रोधको सकारण मान लेनेपर अतित्र्याप्ति टल जाती है । जगत् के यावत् कार्य नियत कारणोंसे ही बनाये जाते हैं । तथा तैर्नरकैर्दुःखं परस्परमुदीर्यते । रौद्रध्यानात्समुद्भूतेः क्रुद्धैर्मेषादिभिर्यथा ॥ १ ॥ निमित्तहेतवस्त्वे तेऽन्योन्यं दुःखसमुद्भवे । बहिरंगास्तथाभूते सति स्वकृत कर्मणि ॥ २ ॥ तथा खोटे रौद्रध्यानसे नरकमें उत्पत्ति होने के कारण उन क्रोधी नारकियों करके परस्परमें: दुःख उभार दिया जाता है, जैसे कि उत्साहसहित ललकारनेसे कुपित हो रहे मैढा, मुर्गा, दुष्टजन, आदिकों करके परस्परमें दुःख उभार लिया जाता है । अतः तिस प्रकार तीव्र दुःखके अन्तरंग कारण:निज उपार्जित कर्मों के होते संते परस्पर दुःखके उपजानेमें नारकी जीव बहिरंग निमित्तकारण हो जाते हैं। ततो नेदं परस्परोदीरितदुःखत्वं नारकाणामसंभाव्यं युक्तिमत्त्वात् । तिस कारण युक्तियों का सद्भाव हो जानेसे यह नारकी जीवों के परस्परमें उदीरित हुये दुःख से सहितपना असम्भव नहीं है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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