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तत्वावलोकयातक
नरकोंमें निवास करनेवाले जीव नित्य ही अत्यन्त अशुभ लेश्यावाले बने रहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, इन लेश्याओंके निकृष्ट अंश उन जीवों के पाये जाते हैं । नारकी जीवोंके क्षेत्र विशेषकी अपेक्षा - हुये अत्यन्त अशुभ परिणाम हैं, जो कि दिन, रात, अंतरंग, बहिरंग, अत्यन्त दुःखोंके कारण बन रहे हैं। नारक जीवों के शरीर अशुभनामकर्म के उदयसे उपजे विकृत घृणित - आकृतिवाले अत्यन्त अशुभ हैं । अन्तरंग, बहिरंग कारणोंसे हुई नारकियोंकी वेदना अतीव अशुभ है, तथा नारकियोंके भले ही अच्छी विक्रिया बनानेकी इच्छा हो किन्तु उनके तीव्र पापके फल अनुसार अशुभ शरीर विकृतियां बन बैठती हैं, जिससे कि स्व और परको अतीव दुःख उपजाया जा सके, नारकियोंके ये भाव नीचे नीचे अधिक अशुभ बढते हुये समझ लेने चाहिये । ...
लेश्यादिशब्दा उक्तार्थाः । तिर्यग्व्यपेक्षयातिशयनिर्देशः पूर्वोपेक्षो वाधोगतानां । नित्यग्रहणाल्लेश्याद्यनिवृत्तिप्रसंग इति चेन्न, आभीक्ष्ण्यवचनत्वान्नित्यशदस्य नित्यपहसितवत् ।
लेश्या आदि शब्दोंके अर्थको हम पहिले प्रकरणोंमें कह चुके हैं । तरप् प्रत्ययका अर्थ अतिशय होता है। यहां नारकी जीवोंकी अशुभतर लेश्या आदिका तिर्यग्गतिमें होनेवाले अशुभ लेश्या आदिकी अपेक्षा करके अतिशयरूप कथन किया गया है । अथवा पहिली पहिली भूमियोंमें निवास करनेवाले नारकियोंकी अपेक्षा उनसे नीचे, नीचे भूमियोंमें प्राप्त हो रहे नारकियोंकी लेश्या आदिक अतिशयको लिये हुये अशुभ हैं । यदि कोई यहां यों कहें कि नारकियोंके लेश्या आदिक जब सर्वदा अति अशुभ ही बने रहते हैं, तब तो उनकी लेश्या आदिकी कभी निवृत्ति या परावृत्ति नहीं हो सकनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । एक ही लेश्या बनी रहेगी । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि यहां नित्यका अर्थ आकाशके समान अविचलभाव बना रहना नहीं है, किन्तु यहां नित्य शद्वका अर्थ अभीक्ष्ण इष्ट किया गया है। जैसे कि " नित्यः प्रहसितो देवदत्तः " देवदत्त नित्य ही हंसता रहता है, यहां नित्यका अर्थ बहुत कालतक ही समझा गया है । खाते, पीते, सोते, पढते • उसका हंसना छूटे ही नहीं यह अर्थ नहीं है । अभीक्ष्णका अर्थ प्रायः, बहुत या बहुभाग अथवा पुनः पुनः है ।
के पुनरेवं विशेष्यमाणा नारकाणामित्याह । महाराज फिर यह बताओ कि इस प्रकार विशेषित हो रहे वे जीव भला कौनसे हैं ! जिनकी अपेक्षा नारकियोंकी लेश्या, परिणाम, आदिक अधिक अशुभ कहे गये हैं । ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिमवार्त्तिक द्वारा समाधान वचन कहते हैं ।
तिर्यंचोऽशुभलेश्याद्यास्तेभ्योप्यतिशयेन ये। प्राणिनोऽशुभलेश्यायाः केचित्ते तत्र नारकाः ॥१॥