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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
श्री उमास्वामी महाराजने सुन्दरतापूर्वक सूत्रमें उस संख्याको दर्शा दिया है । भावार्थ – सूर्य, चन्द्रमा, आदि अकृत्रिम पदार्थ अनादिसे निर्मित हैं तो भी जहां सूर्य चन्द्रमाका प्रकाश हो रहा है, ऐसे स्थानों में जीवों का जन्म लेना पुण्य, पापसे, सम्बन्ध रखता है। तीर्थकर महाराजके पुण्य अनुसार पहिले से ही सुन्दर स्थानोंका निर्माण हो जाता है, तथा पापी जीवों के निवास स्थानं घृणास्पद बन चुके रहते हैं, यद्यपि ये सात भूमियां और चौरासी लाख बिले अनादि अनन्त अकृत्रिम हैं । फिर भी द अनन्त कालीन अनन्तानन्त नारकियों के समुदित पुण्य, पाप, अनुसार स्फुट या विचपिचे स्थानों में जन्म लेना अदृष्ट अनुसार समझा गया है, पुण्य और पापमें बडी विलक्षण शक्तियां भरी हुई हैं ।
अतीव
- इति सूत्रद्वयेनाधोलोकावासविनिश्चयः ।
श्रेयान् सर्वविदायातस्थान्नायस्य विलोपतः ॥ २॥
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इस प्रकार " रत्न, शर्करा " प्रभृति और " तासु त्रिंशत् " आदि इन दोनों सूत्रों करके सूत्रकारने सर्वज्ञकी धारासे चली आ रही आम्नायंको अविच्छेद हो जानेसे अधोलोक में अकृत्रिम बन रहे निवास स्थानोंका विशेष रूपसे श्रेष्ठ निर्णय कर दिया है, अथवा यों अनुमान बना लो कि अधोलोकके निवास स्थानों का विशेष रूपसे निश्चय कर लेना ( पक्ष ) श्रेष्ठ है ( साध्य ) क्योंकि लोक, अलोकको प्रत्यक्ष देखनेवाले सर्वज्ञकी चली आ रही आम्नायका अभीतक विच्छेद नहीं हो पाया है।
न हि सर्वविदायातत्वमेतदाम्नायस्यासिद्धं बाधकाभावात् स्वर्गाधाम्नायवत्, प्राकूचिंतितं चागमस्य प्रामाण्यमिति नेह प्रतन्यते ।
गुरुपरम्परासे चले आ रहे इस श्री उमास्वामी महाराजके समीचीन उपदेशको सर्बज्ञ धारासे चला आयापन असिद्ध नहीं है ( प्रतिज्ञा ) बाधक प्रमाणों का अभाव होनेसे ( हेतु ) स्वर्ग भोगभूमि, मोक्ष, आदि सम्प्रदाय समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमानसे इस सूत्र के अर्थकी सर्वज्ञ धारासे प्राप्त होना संघ जाता है | आगमकी प्रमाणताका हम पूर्व प्रकरणोंमें बहुत अच्छा विचार कर चुके हैं, इस कारण यहां संक्षिप्त व्याख्यानोंमें उसका अधिक विस्तार बढाया नहीं जाता है । थोडे शद्बोंद्वारा अधिक प्रमेय की प्रतिपत्ति कर लेनेकी देवको बढाओ ।
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कीदृशश्यादयस्तत्र प्राणिनो वसंतीत्याह ।
उन नरकोंमें किस जातिकी लेश्यावाले या किस ढंगके परिणाम आदिको धारनेवाले प्राणी निवास करते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥