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________________ ३०२ तत्वार्यलोकवार्तिके त्रिंशश्च पंचविंशतिश्च पंचदश च दश च त्रयश्च पंचोनैकं चेति द्वंद्वः, नरकाणां शतसहस्राणि नरकशतसहस्त्राणि च तानीति स्वपदार्था वृत्तिः, तास्थिति रत्नप्रभादिभूमिपरामशः, यथाक्रमवचनं यथासंख्याभिसंबंधार्थे। तेन रत्नप्रभायां त्रिंशन्नरकशतसहस्राणि, शर्करामभायां पंचविंशतिः, वालुकामभायां पंचदश, पंकप्रभायां दश, धूमप्रभायां त्रीणि, तमःप्रभायां पंचोनैकं नरकशतसहस्रं, महातम प्रभायां पंचनरकाणि भवंतीति विज्ञायते । कुतः पुनस्त्रिंशल्लक्षादिसंख्या रत्नप्रभादिषु सिद्धेत्याह । . तीस और पच्चीस और पन्द्रह और दश और तीन और पांच कम एक इस प्रकार विग्रहमें बहुतसे चकारोंको देकर तीस आदि पदोंका परस्पर सम्बन्ध करते हुये द्वन्द्वसमास करना चाहिये । पुनः " नरकोंके लाख" यों षष्ठी तत्पुरुष समास कर त्रिंशत् आदिक जो वे नरक लक्ष हैं, इस प्रकार समासघटित निज पदोंके अर्थकी प्रधानताको लिये हुये कर्मधारय समास कर लेना चाहिये । “तासु" इस तत् शब्द्ध करके रत्नप्रभा आदि भूमियोंका परामर्श किया जाता है। सूत्रमें यथाक्रम शद्वका वचन तो रत्नप्रभा आदिके साथ तीस लाख आदिका यथा संख्य व्यवस्था अनुसार सम्बन्ध करनेके लिये है । तिस यथाक्रम शब्दकी सामर्थ्य करके रत्नप्रभामें तीस लाख शर्कराप्रभामें पच्चीस लाख, वालुकाप्रभाग पन्द्रहलाख नरक, पंकप्रभामें दशलाख, धूमप्रभामें तीन लाख, तमः प्रभामें पांच कम एक लाख, और सातवीं महातमःप्रभामें केवल पांच ही नरक हैं यह समझ लिया जाता है । यहां किसीका प्रश्न है कि किस युक्तिसे फिर रत्नप्रभा आदि भूमियोंमें तीस लाख आदि नरकोंकी संख्या सिद्ध की गयी है ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं । त्रिंशल्लक्षादिसंख्या च नारकाणां सुसूत्रिता । रत्नप्रभादिषूक्तासु प्राण्यदृष्टविशेषतः ॥ १ ॥ श्री उमास्वामी महाराजने कही जा चुकी रत्नप्रभा आदि पृध्वियोंमें नरकोंकी तीस लाख, पच्चीस लाख, आदि संख्या बहुत अच्छी सूत्र द्वारा समझा दी है, जो कि नारक प्राणियोंके तिस प्रकार पूर्व जन्म उपार्जित विशेष अदृष्टसे हो रही नियत है । तादृशाः पाणिनां तन्निवासिनामदृष्टविशेषाः पूर्वोपात्ताः संभाव्यते यतस्तासु त्रिंशल्लक्षादिसंख्या नरकाणां रत्नप्रभादिसंख्या च सिध्यतीति शोभनं मूत्रिता सा। ___ उन नरकोंमें निवास करनेवाले प्राणियोंके पूर्व जन्ममें उपार्जित और तिस प्रकारकी जातिको धार रहे ईषत् पुण्यमिश्रित पापविशेष सम्भावित हो रहे हैं जिनसे कि उन भूमियोंमें नरकों की तीस लाख आदि संख्यायें और रत्नप्रभा आदि भूमियोंकी सात संख्यायें सिद्ध हो जाती हैं । इस प्रकार
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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