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तत्वार्थचिन्तामणिः
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है । अर्थात् - कोई जीव मरकर एकेन्द्रिय वृक्ष हो जाता है। अन्य जीव गेंडुआ, मक्खी, गधा, लदौआ घोडा, आदि तिर्यंचोंमें जन्म ले लेता है । कतिपय जीव धनिकों के हाथी, घोडे वल होकर उपजते हैं। यह सब कर्मोंकी विचित्रता अनुसार यहां वहां गमन करना, जन्म लेना सिद्ध हो जाता है, जि कारणसे इस प्रकारका सिद्धान्त व्यवस्थित है । इसका विधेय दल अग्रिमकारिकामें देखो ।
ततः सप्तेति संख्यानं भूमीनां न विरुध्यते ।
संख्यांतरं च संक्षेपविस्तरादिवशान्मतं ॥ १६ ॥
तिस कारण से भूमियोंकी सात यह नियत संख्या करना विरुद्ध नहीं पडता है । यदि चाहे तो संक्षेप, विस्तार, मध्यसंक्षेप, मध्यविस्तार, अतिविस्तार आदिकी विवक्षाके वशसे भूमिकी अन्य संख्यायें भी मानी जा सकती हैं । अनेकान्तवाद अनुसार व्यर्थका आग्रह करना हमको अभीष्ट नहीं है। I वे सब हमको स्वीकृत हैं ।
न हि संक्षेपादेकाधोभूमिरिति विरुध्यते विस्तरतो वा सैकविंशतिभेदा सप्तानां प्रत्येकं जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्पात् ।
सात भूमियोंको नहीं मानकर संक्षेपसे एक ही अधोभूमि मान ली जाय यह कोई विरोध करने योग्य नहीं है, अथवा सात भूमियोंमेंसे प्रत्येक के जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट, भेद कर देने से वह
भूमि विस्तार से इक्कीस भेदवाली कह दी जाय, इस मन्तव्यका भी हम विरोध नहीं ठानते हैं । पटलोंकी अपेक्षा उनंचास ४९ भेद कर दिये जांय, उसको भी हम माननेके लिये संनद्ध हैं ।
तद्गतनरक संख्याविशेषप्रदर्शनार्थमाह ।
अब उन भूमियोंमें प्राप्त हो रहे नरक स्थानों की संख्या विशेषका प्रदर्शन कराने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
तासु त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशत - सहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम् ॥ २ ॥
उन भूमियोंमें सर्वत्र नारकी नहीं रहते हैं, किन्तु उन रत्नप्रभा आदि भूमियोंमें यथाक्रमसे तीस लाख, पच्चीस लाख, पंद्रह लाख, दश लाख, तीन लाख, पांच कम एक लाख और केवल पांच ही यों चौराशी लाख नरकविल बने हुये हैं, जो कि वातवलयान्त या अलोकाकाशको छू रहीं लम्बी भूमियों ना भागमें ही कचित् स्थित
हैं ।