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________________ २९६ तत्वार्थ लोकवार्तिके 1 वाले आगमको सत्य माना जाता है तो अचला पृथिवीके भ्रमणको नहीं कहनेवाले आगमका सत्यपना • क्यों नहीं समझ लिया जाय ? क्योंकि ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञानकी सिद्धि होने का सभी प्रकारसे अ है । पृथिवीको अचला या सचला माननेवाले दोनों विद्वानोंके मतानुसार सूर्यग्रहण, दिन रातका व्यवहार, राशिपरिवर्तन, शुकका उदय, अस्त होना आदि ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान एकसे सध जाते हैं । यदि पृथिवी भ्रमण और ज्योतिष्कचक्रका भ्रमण कहनेवाले दोनों भी आगमोंका सत्यपना अभीष्ट है तब उन दोनों आगमोंको अविरुद्ध अर्थका प्रतिपादकपना कहां रहा ? और इस प्रकार तो और बुद्ध महेश्वरके समान दोनों प्रकृष्ट माने जा रहे विरुद्ध वक्ताओंको आप्तपना यानी सत्यार्थ वक्तापन नहीं आ सकता है । अर्थात्-बुद्ध सृष्टि के कर्त्ता को नहीं मानते हुये सभी पदार्थोंको क्षणिक मानते हैं । किन्तु ईश्वरवादी पण्डित तो पृथिवी आदिको बनानेवाले ईश्वरकी कल्पना करते हुये पदार्थोंको नित्य या कालान्तरस्थायी मान रहे हैं, परस्पर विरुद्ध अर्थ को कह रहे ये दोनों तो बढिया वक्ता नहीं हो सकते हैं । इसी प्रकार पृथिवी को सचला या अचला माननेवाले भी आप्त नहीं हो सकते हैं । कमसे कम एक पण्डितके आगम का सत्यपना रक्षित नहीं रह सकता है । अपरिचित स्थलमें नांव द्वारा भ्रमण कर रहा पुरुष भले ही नावका घूमना नहीं मानकर नगर या तीरस्थ प्रासादका भ्रमण अभीष्ट कर ले, एतावता उसके दिशा विभ्रमका समाधान भी भले ही हो जाय, किन्तु वस्तुतः विचारनेपर नगरकी स्थिरता और नावका चलपना माना जायगा। इसी प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा ज्योतिष चक्र ही भ्रमण कर रहा प्रतीत हो । साधारण मनुष्य या पशुको थोडा घूम जानेसे ही आंखोंमें घूमनी आने लग जाती है । कभी कभी खण्डदेशमें अत्यल्प भूचाल ( भूकम्प ) आनेपर शरीर में कपकपी, मस्तकमें भ्रान्ति होने लग जाती है । यदि डांकगाड़ीकी गति से भी अधिक वेगवाली पृथिवीकी चाल मानी जायगी, ऐसी दशामें मस्तक, शरीर, पुराने गृह, कूपजल, समुद्र आदिकी क्या व्यवस्था होगी ? इस बात का बुद्धिमान् स्वयं विचार कर सकते हैं । रहा मतांतरमुपदर्श्य निवारयन्नाह । अब श्री विद्यानन्द आचार्य भूभ्रमणसे अतिरिक्त दूसरे मतोंका संकेत मात्र दिखलाकर उनका निवारण करते हुये अग्रिम वार्त्तिकों को कह रहे हैं । सर्वदाधः पतन्त्येताः भूमयो मरुतोऽस्थितेः । ईरणात्मत्वतो दृष्टप्रभंजनवदित्सत् ॥ १२ ॥ मरुतो धारकस्यापि दर्शनात्तोयदादिषु । सर्वदा धारकत्वस्यानादित्वात्तत्र न क्षतिः ॥ १३ ॥ किसी अन्यवादीका मन्तव्य है कि ये भूमियां सर्वदा ( पक्ष ) नीचे गिरती रहती हैं ( साध्य) । क्योंकि चंचल और कंपन स्वभाववाली होनेसे वायुकी एक स्थानपर स्थिति नहीं होने पाती है (हेतु)
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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