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पार्थमेकवार्तिके
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प्रतिघात होजाना चाहिये । जैसे कि आकाशमें मेघ छाये रहते हैं, किन्तु जब उनके प्रतिपक्ष वायु बहती है तो वह प्रतिकूलवायु उस मेघको धारनेवाली वायुका विध्वंस कर देती है । मेघ तितर बितर होकर नष्ट होजाते हैं या देशांतर में चले जाते हैं । उसी प्रकार अपने बलवान् प्रवाहसे सर्वदा भूगोलको सब ..ओर से घुमा रही प्रेरक वायु भी वहां स्थिर होरही समुद्र, सरोवर आदिको धारनेवाली वायुका विघटन करा. ही देवेगी। इस प्रकार उस जलकी अवस्थिति बनी रहना विरुद्ध ही है । कोई विशेष जातिकी पत्रनका तो सर्वथा असंभव है | अतः बलवान् प्रेरक वायु भूगोलको अविराम घुमाती रहे और निर्बल जल धारक वायु अक्षुण्ण बनी रहे ये नितान्त असंभव कार्य है।
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अत्र पराकूतमाशंक्य प्रतिषेधयति ।
पृथिवीमें आकर्षण शक्तिको माननेवाले दूसरे पण्डितों के मन्तव्यचेष्टा की आकांक्षा कर अनुवाद करते हुये ग्रंथकार उस मन्तव्यका प्रतिषेध अग्रिम वार्तिक द्वारा करते हैं ।
गुर्वर्थस्याभिमुख्येन भूमेः सर्वस्य प्राततः ।
तत्स्थितिश्वेत प्रतीयेत नाधस्तात्पातदृष्टितः ॥ ९ ॥
पूर्वपक्षी कह रहा है कि पृथिवीमें आकर्षण शक्ति है। तदनुसार सम्पूर्ण भारी अर्थीका भूमिके अभिमुखपने करके पतन होता है । भूगोलपरसे जल गिरेगा तो भी पृथिवीकी ओर ही गिरकर वहां वहीं ठहरा रहेगा | अतः उस जलकी स्थिति होना प्रतीत हो जावेगा । यों कहने पर तो आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि भारी, अर्थोका नीचे की ओर पडना ही दृष्टिगोचर हो रहा है। अर्थात् — पृथिवीमें एक हाथ लम्बा चौडा गड्डा खोदकर उस मिट्टीको गढ्डे की एक ओर ढलाऊं ऊंचा बिछाकर यदि उसपर गेंद धर दी जाय ऐसी दशामें वह गेंद नीचीकी ओर गढ्डेमें ढुलक पडती है, जब कि ऊपरले भागमें मट्टी अधिक है तो विशेष आकर्षण शक्ति होनेसे गेंदको ऊपर देशमें ही चिपटा रहना चाहिये था। अतः कहना पडता है कि भले ही पृथिवीमें आकर्षण शक्ति होय, किन्तु उस आकर्षण शक्तिकी सामर्थ्यसे जलका घूम रही पृथिवीसे तिरछा परली ओर गिर जाना नहीं रुक सकता है।
भूगोले भ्राम्यति पतदपि समुद्रजलादि स्थितमिव भाति तस्य तदाभिमुख्येन पतनात् । - सर्वस्य गुरोरर्थस्य भूमेस्नाभिमुखतया पतनादर्शनादिति चेन्नैवं, अधस्तात् गुर्वर्थस्य पातदर्शनात्, तथाभितोभिघाताद्यभावे स्वस्थानात् प्रच्युतोधस्तात्पतति गुरुत्वाल्लोष्ठादिवत् । न हि तत्राभिघातो नोदनं वा पुरूषयत्नादिकृतमस्ति येनान्यथागतिः स्यात् । न चात्र हेतोः कंदुकादिना व्यभिचारः, अभिघाताद्यभावे सतीति विशेषणात् । नापि साध्यसाधनविकलो दृष्टान्तः साधनस्य गुरुत्वस्य यथोक्तविशेषणस्य साध्यस्य वाधस्तात्पतनस्य लोष्ठादौ मसिद्धत्वात । तन शुभ्रमवादी सत्यवागूर्ध्वाधोभूभ्रमवादिवत् । किं च