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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः २९३ रही है। इसी प्रकार कोई परिपूर्ण जलभागसे पृथिवीका कुछ कालसे उदय हुआ इष्ट किये हैं। कुछ दिनोंमें भूभाग मिटकर जलभाग होजायगा तथा कोई जलभाग कम होकर पृथिवी भाग कल्पित कर रहे हैं, किन्तु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होपाती हैं। थोडेसे ही दिनोंमें परस्पर एक दूसरेका विरोध करनेवाले विद्वान् खडे होजाते हैं । पहले पहले विज्ञान या जोतिषयंत्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वारा बिगाड दिये जाते हैं। यों छोटे छोटे परिवर्तन तो दिन रात होते रहते हैं । इनसे क्या होता है ? यहांतक उक्त वार्तिककी व्याख्या कर दी गयी है । तथा दृष्टव्याघाताच्च न सोस्तीत्याह । तथा एक बात यह भी है कि देखे हुये पदार्थोंका व्याघात होजानेसे वह दूसरोंका माना गया भूभ्रमण नहीं घटित होपाता है, इस बातको श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्तिक द्वारा कहते हैं । दृश्यमान समुद्रादिजलस्थितिविरोधतः । गोले भ्राम्यति पाषाणगोलवत्व विशेषवाम् ॥ ८ ॥ भूगोलका भ्रमण होना मानते संते तो समुद्र, नदी, सरोवर आदिके जलोंकी देखी जारही स्थितीका विरोध होजाता है । जैसे कि पाषाण के गोलाको घूमता हुआ माननेपर उसपर अधिक जल ठहर नहीं पाता है। अतः भू अचला है, भ्रमण नहीं करती है, पृथियीको घुमा दे और जलको ठहराये रहे ऐसा कथन कहां संभव सकता है ? अर्थात् — गंगा नदी जैसे हरिद्वारसे कलकत्तेकी ओर बहती है, पृथिवीके गोल होनेपर वह उल्टी भी बह जायगी । समुद्र या कूपजल गिर पडेंगे । घूमते हुये पदार्थ पर मोटा जल नहीं टिककर गिर पडेगा । पवनमें अन्य कोई विशेषता नहीं है । न हि जलादेः पतनधर्मणो भूयसो भ्राम्यति पाषाणगोले स्थितिर्दृष्टा यतो भूगोलेपि सा संभाव्येत । धारकवायुवशात्तत्र तस्य स्थितिर्न विरुध्यत इति चेत्, स धारको वायुः कथं प्रेरकवायुना न प्रतिहन्यते १ प्रवाहतो हि सर्वदा भूगोलं च भ्रमयन् समंततापि तत्स्थसमुद्रादिधारकवायुं विघटयत्येव मेघधारकवायुमिव तत्प्रतिपक्षवात इति विरुद्धैव तदवस्थितिः, सर्वथा विशेषपवनस्यासंभवात् । भारी होनेसे अध: पतन धर्मवाले बहुतसे जल, बालू रेत, आदि पदार्थों की पाषाण गोलेके घूमते सन्ते वैसीकी वैसी ही स्थिति होरही नहीं देखी जा चुकी है जिससे कि भूगोल के घूमते सन्ते भी वह जलकी स्थिति वैसीकी वैसी संभत्र जात्रे । यदि कोई यों कह बैठे कि घूमते हुये उस भूगोल में भी जलको धारे रहनेवाले वायुकी अधीनतासे उस जलकी स्थिति बनी रहने का कोई विरोध नहीं आता है, यों कहनेपर तो हम जैन पूछेंगे कि क्योंजी वह धारक वायु भला प्रेरक वायु करके क्यों नहीं प्रतिघातको प्राप्त होती है ? पृथिवीको घुमाने वाली बलवान् प्रेरक वायु करके जलधारक निर्बल वायुका
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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