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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
उसके कारण अदृष्टका अनुमान करनेके लिये परिश्रम कराया जाता है । हम जैन तो अभी वायुके भ्रमणमें ही विवाद उठा रहे हैं । स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा या आकाशमें उडाये गये पत्ते अथवा पतंगों द्वारा जिस साधारण वायुका ज्ञान किया जाता है, उस वायुकी गति कोई नियत नहीं है ! वह वायु चौबीस घंटे या अडतालीस घंटेमें कोई नियत कार्य करती हुई नहीं जानी जाती है । अतः हम तो समझते हैं कि पृथिवीमण्डलको गाडीके पहिये समान ऊपर नीचे घुमानेवाली कोई वायु नहीं है।
भूभ्रमात् प्रवद्वायुसिद्धिरिति चेन्न, तस्यापि तद्वदसिद्धः । नानादिग्देशादितयार्कादिप्रतीतिस्तु भूभ्रमेपि घटमाना न भूभ्रमं साधयतीति । कथं ? अनुमितानुमानादप्यदृष्टविशेषसिद्धिरिति सूक्तं न भूमेरुवांधोभ्रमणं षट्चक्रवदेकानुभवं संपरिवृत्तिा घटते तद्भ्रमणहेतोः पराभ्युपगतस्य सर्वथानुपपद्यमानत्वात् परेष्टभूभ्रमादिवदिति ।
यदि भूभ्रमणवादी यों कहे कि भूका भ्रमण हो रहा है, इस ज्ञापक हेतुसे प्रकाण्ड रूपसे बहरही, घूमती हुई, वायुकी सिद्धि हो जाती है, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस वायुभ्रमणके समान उस भूभ्रमणकी सिद्धि नहीं हो सकी है। अन्योन्याश्रय दोषवाले आसिद्ध हेतुओंसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है । पूर्व, पश्चिम, अनेक दिशाओंमें या बंगाल, पंजाब, यूरोप, अमेरिका, आदि देशोंमें दीखना अथवा लाल पीले, धौले, आकार धार लेना, ग्रहण पड जाना, भूमिमें लग जाना, आदि ढगोंकरके सूर्य आदिकी हो रही प्रतीति तो नक्षत्रमण्डल या सूर्य आदिके भ्रमण माननेपर भी घटित हो रही संती भूभ्रमण की सिद्धि नहीं करा पाती है । इस कारण अनुमित किये गये हेतुद्वारा पुनः उठाये गये अनुमानसे भी भला अदृष्ट विशेषकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? अर्थात्-भूभ्रमणवादीने कारक पक्षमें अदृष्ट विशेषसे वायुका भ्रमण और वायुभ्रमणसे भूभ्रमण होना माना है और ज्ञापक पक्षमें भूभ्रमणसे बायुके भ्रमणकी ज्ञप्ति और वायुभ्रमण नामक कार्य हेतुसे अदृष्टकी सिद्धि (ज्ञप्ति ) की है , आचार्य कहते हैं यों अनुमित अनुमानसे भी तुम अदृष्टकी सिद्धि नहीं कर सके हो । इस कारण हमने वार्तिकमें बहुत अच्छा कहा था कि छह पहियेवाले यंत्रके समान या चरखाके समान भूमिका ऊपर नीचे भ्रमण होना नहीं घटित होपाता है अथवा एक व्यक्तिके अनुभव अनुसार भले प्रकार परिवर्तन होना नहीं घटित होता है । क्योंकि दूसरोंके द्वारा माने गये उस पृथिवीकी भ्रान्तिके हेतुओंकी सभी प्रकासि उपपत्ति नहीं होपाती है। जैसे कि अन्य वादियोंके यहां इष्ट किया गया पृथिवीका गेंद या नारंगीके समान तिरछा घूमना आदिके हेतुओंकी सिद्धि नहीं हो सकी है। यहां आदि पदसे पृथिवकि पतन आदि भी लिये जा सकते हैं। कोई वादी भारी पृथिवीका नितरां अधोगमन होना भी मान बैठे हैं तथा कोई आधुनिक पण्डित अपनी डेड बुद्धिमें यों जान बैठे हैं कि पृथिवी दिनपर दिन सूर्यके निकट होती चली जारही है। इसके विरुद्ध कोई यों कह रहे हैं कि अनुदिन सूर्यसे पृथिवी दूरतम होती चली जा