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________________ २९० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके भूभ्रमवादी अपने मन्तव्यका अवधारण करनेके लिये हेतुमें अविनाभावको दिखलाते हुये यों अनुमान प्रमाण कहते हैं कि जो पदार्थ पुरुषके प्रयत्न या पत्थरकी टक्कर आदिक कारणोंके नहीं होनेपर भी घूम रहा है ( हेतु ) उसका वह भ्रमण घूम रही वायुको कारण मानकर हुआ है ( साध्य ) जैसे कि आकाशमें आंधी चलते समय पत्ते, तिनके, आदि पदार्थ घूमती हुई वायु द्वारा घूम जाते हैं ( अन्वयदृष्टान्त ) तिस ही प्रकार भूगोल घूम रहा है ( उपनय ) अतः वायुभ्रमण अनुसार भूगोल. मान लेना चाहिये ( निगमन ) इस प्रकार अविनाभाववाले हेतुसे इस अनुमानका उत्थान हुआ है । हेतुमें पुरुषके प्रयत्न आदिका अभाव यह विशेषण तो व्यभिचारकी निवृत्तिके लिये दिया है । अतः पुरुषके प्रयत्न द्वारा की गयी चाक आदि की भ्रांति करके और पत्थरकी या वेगयुक्त जल आदिकी अच्छी टक्कर लग जानेसे किये गये नजल, समुद्रजल, आदिके भवरों करके व्यभिचार नहीं हो पाता है। यहां भ्रमणमें पुरुषप्रयत्न, पाषाणघट्टन, आदिका अभाव असिद्ध नहीं है। क्योंकि पृथिवस्विरूप गोलाके भ्रमण करनेमें महेश्वर, विधाता, आदि कारणोंका निराकरण कर दिया । है और पत्थरों की टक्कर, विद्युत्प्रवाह आदि कारणोंकी भी संभावना नहीं है । अतः हेतुका विशेषण दल पक्षमें वर्तता हुआ सिद्ध होजाता है । भूभ्रमवादी ही कहे जा रहे हैं कि पृथिवी स्वरूप गोलेका . भ्रमण करना असिद्ध होय यह मान बैठना' भी उचित नहीं है। क्योंकि उस भ्रमणका अभाव मान लेने पर तो उस भूमिमें ठहरनेवाले मनुष्योंको चंद्रबिंब, सूर्यबिंब, शुक्र आदिके उदय या अस्त होनेपर भिन्न भिन्न देश वर्तीपतः या न्यारे न्यारे आकार आदिपने करके प्रतीति होना नहीं घटित हो पायेगा और वह भिन्न भिन्न देशवर्ती आदिपने करके प्रतीति तो होरही है। तिस कारणसे भूगोलका भ्रमण होना प्रमाणसे सिद्ध है, यो भ्रमण हेतु पक्षमें ठहर जाता है । इस प्रकार ननुसे लेकर यहांतक कोई एक पण्डित कह रहा है। सोत्रैवं पर्यनुयोक्तव्यः। भभ्रमः कस्मान्न भवतीति तदविदिनः" प्रवचनस्य 'सद्भावात् । प्रतिनियतानेकदेशादितयार्कादीनां प्रतीतेरपि घटनात् भूभ्रमणहेतोविरुद्धत्वोपपत्तेः । भूगोलभ्रमणे साधनस्यानुमानादिबाधितपक्षतानुषंगात् । कारणाभावात् - भभ्रमोवतिष्ठत इति चेत् तथाविधादृष्टवैचित्र्यात्तभ्रमणोपपत्तेः । ____ अब आचार्य कहते हैं कि उस भूभ्रमवादीके ऊपर यहां प्रकरणमें इस प्रकार चोद्य उठाना चाहिये कि भूभ्रमणके समान नक्षत्र मण्डल या सूर्य आदिकोंका भ्रमण हो रहा क्यों नहीं माना जाता है ! जब कि उस ज्योतिष चक्रक भ्रमणका आवेदन करनेवाले आप्तवाक्य स्वरूप आगमका सद्भाव हो रहा है, उदय, अस्त, दशामें सूर्यका दूर स्थित भूमिके साथ स्पर्श हो रहा दखिना और मध्यान्हमें ऊपर दीखना तथा बीचमें तिर्यक् ऊंचा दीखना यों प्रतिनिवेत अनेक देश या दिशा आदिमें स्थितपने करके सूर्य आदिकोंकी प्रतीति होमा भी तभी घटित होता है, जबकि पृथिवीको अचला
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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