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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः . २८९ नोधिोभ्रमणं भूमेर्घटते गोलकात्मनः । सदा तथैव तद्भांतिहेतोरनुपपत्तितः ॥ ७ ॥ गोल स्वरूप हो रही भूमिका ऊपर नीचे भ्रमण होना घटित नहीं हो पाता है। क्योंकि सर्वदा तिस ही प्रकार उस भूमिके भ्रमणके कारक हेतुकी सिद्धि नहीं हो चुकी है । चौबीस घन्टे या ऋतु अनुसार पृथिवीको तिस ही प्रकार घुमानेवाले कारणोंकी सिद्धि नहीं हो पाती है। नियत कारणके विना नियत कार्य नहीं हो सकता है। वायुरेवोर्ध्वाधो भ्रमत्सर्वदा भूमेस्तथा भ्रमणहेतुरिति न संगतं, प्रमाणाभावात् । आगमः प्रमाणमिति चेन्न, तस्यानुग्राहकप्रमाणांतराभावात् । तस्यानुमानमनुग्राहकमस्तीति चेन्न, अविनाभाविलिंगाभावात् । ___यदि आधुनिक पण्डित यों कहें कि वायु ही ऊपर नीचे भ्रमण कर रही संती तिस प्रकार भूमिके सर्वदा नियमित भ्रमणका हेतु है। आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो संगतिग्रस्त होकर हृदय स्पर्शी नहीं है, असम्बद्ध है । क्योंकि घूम रही वायुके अनुसार भूमिके भ्रमणको साधनेवाला कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है । यदि आप इस विषयमें आगमप्रमाणको प्रस्तुत करें कि आर्यभट्टने अपने ग्रंथमें पृथिवीको चलती हुई साधा है। अपनी कक्षासे बाहर गमन नहीं करना सो ही अचलपना है और भी कितनी ही इंग्रेजी पुस्तकोंमें पृथिवीका भ्रमण सिद्ध किया गया है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस आगमका अनुग्रहकारक कोई दूसरा प्रमाण नहीं है। जबतक आगममें कही हुई बातको परिपुष्ट करनेके लिये अन्य प्रमाण सहायता नहीं देते हैं, तबतक चाहे जिस आगमके उपन्यासोंके समान किसी भी प्रमेयको आंख मीचकर नहीं मान लिया जाता है । यदि कोई भूभ्रमणवादी यों कहे कि उस आगमका अनुग्रहकारक अनुमान प्रमाण विद्यमान है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कथन उचित नहीं है । क्योंकि उस अनुमानमें अविनाभावको धारनेवाला समीचीन लिंग नहीं है । अन्यथानुपपत्ति करके रीते हो रहे हेतुसे समीचीन अनुमान ज्ञान नहीं उपज पाता है। . ननु च यत्पुरुषप्रयत्नाद्यभावेपि भ्राम्यति तद्भ्रमद्वायुहेतुकं भ्रमणं यथाकाशे पर्णादि तथा च भूगोल इत्यविनाभावि लिंगमनुमानं पुरुषप्रयत्नकृतचक्रादिभ्रमणेन पाषाणादिसंघट्टकृतनदीजलादिभ्रमणेन च व्यभिचाराभावात् । न च पुरुषप्रयत्नाद्यभावोऽसिद्धः पृथिवीगोलकभ्रमणे महेश्वरादेः कारणस्य निराकरणात् । पाषाणसंघट्टादिसंभवाभावात् भूगोलभ्रमणमसिद्धं इति न मंतव्यं तदभावे तत्स्थजनानां चंद्रार्कादिबिंबस्योदयास्तमनयोभिन्नदशादितया प्रतीतेरघटनात् । सास्ति च प्रतीतिस्ततो भूगोलभ्रमः प्रमाणसिद्ध इति कश्चित् । 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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