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________________ २८८ तत्वार्यलोकवार्तिके तो भूमिका आधार भी वायु मानना उचित है। वायुमें अनन्त शक्ति है। कछवा या सूअर कितने भी लंबे चौडे बडे माने जांय वे आधार विना ठहर नहीं सकते हैं। सोयं कूर्म वराहं वा स्वयमनाधार भूमेराश्रयं कल्पयन् दृष्टहान्या निर्धार्यते । यह वही प्रसिद्ध पौराणिक किसी अन्य आधारपर नहीं डट रहे यों ही अनंत आकाशमें स्वयं निराधार होरहे कछवा अथवा शूकरको इस लम्बी चौडी भूमिका आश्रय कल्पित कर रहा बिचारा दृष्टहानि करके निर्धारण कर लिया जाता है । अर्थात्-पौराणिककी कल्पनामें प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा विरोध आता है । ऐसी दृष्टविरुद्ध गप्पोंको अभीष्ट करनेवाला अंधभक्त वादी प्रामाणिक पुरुषों द्वारा पृथक्भूत समझ लिया जाता है। कश्चिदाह-न स्थिरा भूमिर्दर्पणाकारा। किं तर्हि ? गोलकाकारा सर्वदोर्ध्वाधो भ्राम्यति, स्थिरं तु नक्षत्रचक्र मेरोः पादक्षिण्येनावस्थानात् । तत एव पूर्वादिदिग्देशभेदेन नक्षत्रादीनां संप्रत्ययो न विरुध्यते । तथोदयास्समनयोश्चंद्रादीनां भूमिसंलग्नतया प्रतीतिश्च घटते नान्यथेति, तं प्रति बाधकमुपदर्शयति । ___कोई आधुनिक विद्वान् अपना पूर्वपक्ष यों कह रहा है कि आप जैनोंके यहां लम्बी, चौडी, पतली, सपाट दर्पणके समान जो भूमि मानी गयी है, वह रत्नप्रभा भूमिका आकार ठीक नहीं है । तथा भूमि जो स्थिर मानी गयी है और नक्षत्र मण्डलको मेरूकी प्रदक्षिणा करता हुआ ढाई द्वीपमें भ्रमणशील माना गया है, वह भी ठीक नहीं है । तो भूमि कैसी है ? इसपर हमारा पक्ष यह है कि यह भूमि गेंद या नारंगीके समान गोल आकारको धारती है। उसका आकार चपटा नहीं है । भूमि सर्वदा स्थिर भी नहीं किन्तु सर्वदा ऊपर, नीचे, घूमती रहती है । हां, सूर्य, चंद्र, या शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरणी, आदि नक्षत्रचक्र तो मेरूके चारों ओर प्रदक्षिणारूपसे जहांका तहां अवस्थित हो रहा है, घूमता नहीं है । तिस ही कारणसे यानी नक्षत्रमण्डलकी स्थिरतासे और भूमिका भ्रमण होनेसे ही पूर्व, उत्तर, आदि दिशाओं या विदेह आदि देशोंके भेद करके नक्षत्र, सूर्य, आदिकोंका समीचीन ज्ञान हो रहा विरुद्ध नहीं पडता है तथा उदय होते समय या अस्त होनेके अवसरमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र आदि ज्योतिष्कोंकी भूमिमें संलग्नपने करके प्रतीति होना घटित हो जाता है, अन्यथा नहीं । अर्थात्-कदाचित् अपरिचित स्थानकी नदीमें नावपर बैठे हुये हम इधर उधर आ जायें तो दिशा भ्रान्ति हो जाती है, इसी प्रकार घूमती हुई पृथिवीपर बैठे हुये हमको नक्षत्र मण्डल यहांसे वहां हो गया दीखता है । उदय होता हुआ सूर्य दूरवर्ती भूमिमें चिपट रहा दीखता है, यह सब भूमिके भ्रमणसे सम्भव जाता है। अन्य कोई उपाय नहीं हैं । अब आचार्य महाराज उस विद्वान्के सन्मुख घूम रही गोल पृथिवीके मन्तव्योंका बाधक प्रमाण (णोंको ) वार्तिक द्वारा दिखलाते हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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