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________________ ر उस तीसरे तनुत्रात करके भले प्रकार धारण कर लिया गया दूसरा अंबुबात तो कठिन स्वरूप अर्थ तीसरे घनवातका धारक है ( प्रतिज्ञा ) अंबुवात होनेसे ( हेतु ) जैसे कि समुद्रको धारनेवाली लहरोंकी विशेष वायु- है ( दृष्टांत । अर्थात् - वायु स्वभाव भी तनुवात ऊपरले अंबुमत नामक वायुका आधार होजाता है और कुछ कुछ पतला, मोटा, अंबुवात तो ऊपरले सघन, स्थूल, घनवातका आधार संभव जाता है, जैसे कि विशेषताओंसे युक्त लहरीली वायु समुद्रको धारे रहती है । स च तनुवात प्रतिष्ठोंब्रुवातो घनवातस्य स्थितिहेतुः सोपि भूमेर्न पुनः कूर्मादिरित्यावेदयति । यों वह पतले पतले स्कन्धोंको धार रहे तनुवात्तचलयपर प्रतिष्ठित हो रहा दूसरा अम्बुचात तो ऊपरले घनवातकी स्थितिका कारण हो रहा प्रतिष्ठापक है और वह धमवात भी रत्नप्रभा भूमिका आधार है । पृथिवीके फिर कोई कच्छप, शूकर, गोश्रृंग, आदि आधार नहीं है । इसी बात की अन्धकार विज्ञप्ति कराते हैं । घनानिलं प्रतिष्ठानहेतुः कूर्मः स एष नः ॥ न कूर्मादिरनाधारो दृष्टकूर्मादिवत्सदा ॥ ५ ॥ तन्निवा सजनादृष्टविशेषक्शतो यदि । कुमदिराश्रयः किं न वायुर्दृष्टान्तसारतः ॥ ६ ॥ -भूमिके वहां के वहां प्रतिष्ठित बने रहने का कारण वह घनबात ही हम जैनोंके यहा कळवा माना गया है। कोई दूसरा कच्छप प्राणी या शूकर आदि जीव तो भूमिके आधार नहीं हैं। क्योंकि वे कच्छप आदि स्वयं दूसरे आधारपर टिके हुये नहीं माने गये हैं । कछवा या सूअर अन्य आधार के बिना ठहर नहीं सकता है, जैसे कि आजकल देखे गये कछवा, सूअर आदिक जीव अन्य आधारसे रहित होरहे सन्ते किसीके अधिकरण नहीं बन पाते हैं । अन्य आधारोंकी कल्पना की जायगी तो अनवस्था दोष होगा । अतः देखे हुये कछवा आदि के समान वह पौराणिकोंके कछवे, सूअर आदि भी भूमिको धारनेवाले नहीं माने जाते हैं । अर्थात् इस रत्नप्रभाके नीचे सात राजू लंबे, एक राजू चौडे बसि हजार योजन मोटे घनवात या साठ हजार योजन मोटे वातवलयको भले ही कवियोंकी भाषामें कछवा या सूअस्की उपमा दी जाय । यदि कोई विष्णुकेः कच्छप अवतार, वराह अवतार, आदि में अंधभक्तिको धार रहा पौराणिक यों कहे कि भूमियोंमें निवास करनेवाले प्राणियों के पुण्य, पाप, विशेषकी अधीनता से वे निराधार भी कच्छप भगवान् या वराह भगवान् इस भूमिके आश्रय होजाते हैं । आचार्य कहते हैं . कि तब तो प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा देखे हुये पदार्थ के अनुसार होनेसे वायु ही भूमिका आश्रय क्यों नहीं मान लिया जाय ? जब कि मेघ, वायुयान, विमान, पक्षी, ये बहुतसे पदार्थ वायुपर डट रहे हैं
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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