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________________ १८६ तत्वार्थ लोकवार्तिके कोंके आधार वायुपरमाणुओंको स्वीकार किया है । पुनः परमाणुओं का आधार आकाश अभीष्ट किया है। ऐसी दशा में अवयब और अबयवीका कथंचित् अभेद हो जानेसे तनुवातका अधिकरण यदि आकाश को कह दिया तो इसमें तुम्हारी क्या हानि हो गयी ? सभी आस्तिकोंने सर्व द्रव्यों का आधार परिदोष में आकाशको ही स्वीकार किया है । अतः कोई वाक्छटा दिखलाना निष्णातविद्वानों नहीं शोभा है । वार्त्तिक द्वारा कहा गया हमारा अनुमान निर्दोष है । उस अनुमानमें दिया गया उदाहरण साध्यसे रीता नहीं है । क्योंकि मैघको धारनेवाला वायुका आकाशमें प्रतिष्ठित रहना साध· दिया गया है तथा हमारे हेतुका त्रिपक्षसे व्यावृत्त होना गुण भी संदेहप्राप्त नहीं है । क्योंकि आकाश के आधारपर नहीं उट रहे किसी भी एक तनुत्रातका असम्भव हो रहा है । जब कि सभी वायुयें अथवा अन्य पदार्थ भी आकाशपर स्थान पा रहे हैं, ऐसी दशा में हेतुकी विवक्षव्यावृत्ति निर्णीत हो चुकी है । इस कारण से सिद्ध हो जाता हैं कि उस अमूर्त आकाशको भी वायुका आधारपना युक्त है । जैसे कि शरीर, इन्द्रिय, अष्टविध कर्म, आदिका आधार पना आत्माको अभिष्म रूपसे समुचित माना गया है, आप वैशेषिकोंने “जगतामाश्रयो मतः” इस वचन अनुसार कालको यावद् जगत् का आश्र माना है | शरीर, इन्द्रिय, आदिका अधिकरण आत्मा हो रहा है। बैठा हुआ देवदत्त यदि अपनी बांह को ऊँचा, नीचा, कर रहा है, इसका तात्पर्य यह है कि देवदत्त अपनी बांहसे संयुक्त हो रही आत्माको स्वयं ऊंचा नीचा कर रहा है। । उस आत्मा के साथ बंध रही पौगलिक बांह तो आत्मा के साथ घिसटती हुयी ऊपर, नीचेको, जा रही है । देवदत्त मार्ग में चल रहा है । । यहां भी देवदत्तकी गतिमान् आत्मा चल रही है । उस आत्मापर घरा हुआ शरीर तो उसी प्रकार आत्मा के साथ घिसटता चलता है, जैसे कि शरीर के साथ कपडे, गहने, या घोडे द्वारा खींची गयी गाडीपर बैठे हुये सेठजी खिचरते लदे जा रहे हैं । सूक्ष्म शरीर या स्थूल शरीर के उपयोगी वर्गणाओंसे आत्मामें ही पौद्गलिक शरीर बन कर वहीं ठहर जाते हैं। अतः शरीर आदिका आधार आत्मा माना जाय यही अच्छा है। अमूर्त' भी मूर्त पदार्थका आधार हो सकता है। क्योंकि तिस प्रकार की प्रतीतियोंका अबाधितपना प्रसिद्ध है । नैयायिकोंने अमूर्त दिशाको भी मूर्त पदार्थों का आधार माना है । मीमांसक बौद्ध आदि विद्वान् भी अमूर्तीको मूर्तका आधार मान बैठे हैं। लोकमें भी मूर्ती के आधार अमूर्त द्रव्य की निर्वाध प्रतीति हो रही है । 1 1 तनुवातः कथमेवुवातस्याधिकरणं समीरणस्वभावत्वादिति चेदुच्यते । यहां कोई प्रश्न करता है कि जब तनुवात ही स्वयं प्रेरक वायुस्वभाव रहा गति या कम्पनको कर रहा है तो वह हलता, चलता, तीसरा वायु तनुवात भला दूसरे वायु अम्बुवातका अधिकरण कैसे हों. सकेगा ? प्रमाण दो, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा वार्त्तिक कहा जाता है । तद्भूतश्चांबुवातः स्याद्वनात्मार्थस्य धारकः । अंबुवातत्वतो वार्डेवींचीवायुविशेषवत् ॥ ४ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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