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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २८५ पुनः किसीका आक्षेप है कि मूर्त होनेसे भूमियोंका अधिकरण घनवात या घनवातका आधार अम्बुवात अथवा अम्बुवातका आश्रय तनुवात भले ही हो जाओ, किन्तु अमूर्त होनेसे भला आकाश इस समय तनुवातका अधिकरण कैसे हो सकता है ? क्योंकि उसके प्रतिबन्धकपनका अभाव है। अर्थात्-पुस्तकका आधार चौकी है, मनुष्य का आश्रय मूंढा है, यहां आधेयके अधःपतनका प्रतिबन्धक होनेसे चौकी, मूढाको आधेयका आधार माना गया है । किन्तु अमूर्त और सबको सर्वत्र अवगाह देनेवाला आकाश तो तनुवातके अधःपातका प्रतिबन्धक नहीं है। तनुवातके नीचे ऊपर, तिरछे, सर्वत्र आकाश भर रहा है। अतः तनुवातका आधार आकाश नहीं सिद्ध होता है। यहांतक कोई दूसरा आक्षेपकार कह रहा है। उसके प्रति (उन्मुख) श्री विद्यानंद स्वामी वार्तिक द्वारा उत्तर वचन कहते हैं । तनुवातः पुनर्योमप्रतिष्ठः प्रतिपद्यते । तनुवातविशेषत्वान्मेघधारणवायुवत् ॥३॥ फिर तनुवात तो ( पक्ष ) आकाशमें प्रतिष्ठित हो रहा समझा जाता है ( साध्य ) विशेष स्वरूप धारी तनुवात होनेसे ( हेतु ) मेघको धारनेवाले वायुके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) अर्थात्आकाशमें फैल रहे मेघको जैसे अदृश्यवायु धारे रहता है, उसी प्रकार तनुवातको आकाश धारे हुये है। मछलीके चारों ओर फैल रहा जल मछलीको आधार है । भूमिमें सैकड़ों कीडे मकोडे आश्रय पा रहे हैं । वायुके आधारपर पक्षी उड रहा है। ___ मेघधारणो वातावयवी वाय्ववयवप्रतिष्ठ इति चेत् न, अनंतशः पवनपरमाणूनां पवनावयवत्वात् तेषां वाकाशप्रतिष्ठत्वादभिन्नस्य कथंचित्पवनावयविनोपि तदाधारत्वोपपत्ते साध्यविकलमुदाहरणं, नापि संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिको हेतुः, कस्यचिदप्यनाकाशाधारस्य तनुवातस्यासंभवात् । ततः तस्यामूर्तस्यापि पवनाधारत्वमुपपन्नं आत्मनः शरीराद्याधारत्ववत् तथा प्रतीतेरबाधितत्वात् । यदि यहां कोई वैशेषिक यों कहे कि छोटे छोटे अवयव वायुओंसे बना हुआ अवयवी हो गया, वायु जो कि मेघको धारनेवाला कहा गया है, वह तो अपने समवायी कारण हो रहे अवयवोंपर प्रतिष्ठित है, आकाशमें नहीं है । अतः आपका हेतु बाधित है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि अनन्तें अनन्ते वायुके परमाणुऐं उस अवयवी पवनके अवयव हैं । जब कि वे अवयव अन्तमें जाकर आकाशमें प्रतिष्ठित हो रहे माने जाते हैं, तो उन अवयवोंसे कथंचित् अभिन्न हो रहे अवयवी वायुका भी वह आकाश आधार बन जायगा । अर्थात्-वायुके आधार वैशेषिकोंने वायुके अवयव माने हैं । उन अवयवोंका आधार उनके भी अवयव हैं, यों चलते चलते षडणुक, पंचाणुक, चतुरणुक, पर पहुंचकर चतुरणुकों के आधार त्र्यणुफ और त्र्यणुकोंके आधार द्यणुक तथा
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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