SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ तत्वार्थश्लोकवार्तिके स्वात्मप्रतिष्ठमाकाशं विभुद्रव्यत्वतोन्यथा। घटादेरिव नैवोपपद्येत विभुतास्य सा ॥२॥ . आकाश ( पक्ष ) अपने निजस्वरूपमें ही प्रतिष्ठित होरहा है ( साध्य ) व्यापक द्रव्य होनेसे ( हेतु ) अन्यथा यानी आकाशको स्वप्रतिष्ठित नहीं मानकर यदि आकाशके भी अन्य अन्य अधिकरण माने जायंगे तब तो घट, पट, आदिके समान इस आकाशका वह व्यापकपना नहीं बन सकेगा । अर्थात्-आकाशके अधिकरण माने गये द्रव्यका जहांसे प्रारम्भ होगा वहींतक आकाशकी सीमा समझी जायगी । घरकी पोलरूप आकाशका अधिकरण यदि आंगनको मान लिया जायगा तो ऐसे छोटे छोटे अनन्त आकाशोंकी असद्भूत कल्पना करनी पडेगी। आकाशकी व्यापकता भी नष्ट हो जायगी, जो कि इष्ट नहीं है। परममहदन्यत्मतिष्ठितं वेति व्याहतमेतत् । ततो व्योम चात्मप्रतिष्ठं विभुद्रव्यत्वायत्तु न स्वात्मप्रतिष्ठं तन्न विभुद्रव्यं यथा घटादि, विभुद्रव्यं च व्योमेति न तस्याप्याधारांतरकल्पनयानवस्था स्यात् । नापि भूम्यादीनामपि स्वप्रतिष्ठत्वमसंगस्तेषामविभुद्रव्यत्वादिति न प्रकृतबाधकत्वं । इधर आकाशको परम महापरिमाण वाला कहना और उधर आकाशको दूसरे अधिकरण द्रव्यपर प्रतिष्ठित कर देना ये दोनों बातें परस्पर व्याघातदोष युक्त हैं। परम महत् कहते ही आकाशका अन्य द्रव्यपर प्रतिष्ठित रहना उसी समय रोक दिया जाता है अथवा घटादिकका अन्य स्थलोंपर धरा रहना कहते ही उसी क्षण महापरिमाणसहितपना निषिद्ध होजाता है। अन्योन्य विरुद्ध होरहे धर्मोमेंसे किसी एककी विधि करते ही बच रहे दूसरे धर्मका उसी समय झट निषेध हो जाता है। दोनों धर्मकी विधि या दोनोंके युगपत् निषेध करनेका असम्भव है । तिस कारणसे सिद्ध होजाता है कि व्यापक द्रव्य होनेसे ( हेतु ) आकाश ( पक्ष ) स्वयं अपनेमें ही आधार आधेयभूत प्रतिष्ठित होरहा है ( साध्य ) जो स्वात्म प्रतिष्ठित नहीं है वह तो विभु द्रव्य भी नहीं है जैसे कि घट, पट, आदिक पदार्थ हैं ( व्यतिरेकव्याप्तिपूर्वक व्यतिरेकदृष्टान्त )। यह आकाश व्यापक द्रव्य है ( उपनय ) इस कारण वह स्वयं अपना अवलम्ब है ( निगमन )। अतः पुनः उसके भी अन्य आधारोंकी कल्पना करके अनवस्था दोष नहीं हो पायगा । तथा आकाशके समान भूमि, वायु, आदिकोंको भी स्वप्रतिष्ठितपनेका प्रसंग नहीं आ पाता है। क्योंकि वे भूमि आदिक तो अव्यापक द्रव्य हैं । अतः वे स्वाश्रय नहीं हो सकते हैं। इस कारण हमारे प्रकरणमें प्राप्त सात भूमियां या उनके आधारोंकी निधि, निर्दोष, हेतु द्वारा सत्तासाधनमें तुम्हारा आक्षेप बाधक नहीं हो सकता है। तब तो बाधकच्युति हेतु पक्षमें ठहर गया। ननु कथमिदानी व्योम तनुवातस्याधिकरणममूर्तत्वात्तत्प्रतिबंधकत्वादित्यपरस्तं प्रत्याह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy