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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके उसके नचेि वीस सहस्र योजन मोटा अंबुवात है अम्बुवात के नीचे वीस हजार योजन मोटा तनुवात है, आकाश तो ऊपर नीचे अगल बगल सर्वत्र ही है । लोकके पूर्व, पश्चिम या दक्षिण उत्तर अथवा ऊपर सिरमें जो बातवलय लिपट रहा है, उसमें नीचे घनवात, उसके ऊपर अम्बुबात और उसके ऊपर तनुवात है। लोकके सबसे ऊपरले भागमें विराजमान अनन्तानन्त सिद्वपरमेष्ठी भगवान् तनुवातवलय में ही प्रतिष्ठित हैं । जिन सम्पूर्ण सिद्धपरमेष्ठी परमात्माओं के सिरके ऊपरले भागका अलोकाकाश के साथ संयोग हो रहा है। इधर उधर या नीचे तनुत्रात संयुक्त है। उन शुद्ध आत्माओं को मैं त्रियोगसे नमस्कार करता हूं। इन तीनों वातत्रलयों में वायु काय के असंख्याते जीत्र हैं। कचित् कदाचित, जीवरहित जडवायु भी फैली हुई है। यों सूत्रकारने अवोलोककी सामान्य रचनाको समझा दिया है । २८० रत्नादीनामितरेतरयोगे द्वंद्वः, प्रभाशद्वस्य प्रत्येकं परिसमाप्तिर्भुजिवत् । साहचर्यात्ताच्छब्द्यसिद्धिर्यष्टिवत् । । १ घर्मा २ वंशा ३ मेघा ४ अंजना ५ अरिष्टा रत्न और शर्करा और वालुका और पंक और धूम और तम और महातमः इन सात पदों का परस्पर जोड़ करते हुये इतरेतरयोग नामक द्वन्द्व समासमें " रत्नत्रर्शरावालुकापंकधूमतमः महातमांसि " यों द्वन्द्व समासवाला पद बना लिया जाता है । द्वन्द्व समासके अन्तमें पडे हुये प्रभा शद्वकी रत्न, शर्करा, आदि प्रत्येकमें पूर्णरूपसे समाप्ति कर देनी चाहिये। जैसे किसीने कहा कि देवदत्त, जिनदत्त, गुरुदत्त, इनको भोजन करा दो। यहां भोजन क्रियाका प्रत्येक तीनों में अन्वय कर दिया जाता है। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, चालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमः प्रभा, ये सात भूमियोंके नाम उनकी कांतिका अवलम्ब लेकर अनादिते चले आ रहे हैं ६ मघवी ७ माघवी ये सात नाम भी सात नरकों की अपेक्षा प्रसिद्ध हो रहे हैं । यष्टि ( लकडीके ) समान सहचरपनेसे उन रत्नशर्करा, आदिकी प्रभाओं अनुसार रत्नप्रभा आदि शब्दों द्वारा वाच्यपनेकी सिद्धि कर दी जाती है । अर्थात् — जैसे लाक्षणिक यष्टिपद द्वारा यष्टिके सहचरपनेसे यष्टिधर देवदत्तको भी लकडी कह दिया जाता है । या आम बेचनेवालेको आमका साहित्य होनेसे ओ आम या तांगावालेको तांगा कहकर पुकार लिया जाता है । उसी प्रकार चित्र, रत्न, वज्ररत्न, वैडूर्यमणि, लोहमणि, गोमेद, प्रवाल (मूंगा) आदि रत्नों की सी प्रभाका सन्निधान होने से पहिली भूमि रत्न - प्रभा मानी गयी है। इस भारत वर्ष में भी किसी देशमें लाल, कहीं काली क्वचित् पीली किसी स्थलपर अधिक काली आदि कई रंगों की भूमियां शोभ रही हैं । ककरीकी प्रभा समान प्रभासे युक्त होरही भूमि शर्कराप्रभा है । वालुके समान कान्तिको धारनेवाली वालुकाप्रभा है। कीचकीसी द्युतिको पंकप्रभा धार रही है। धूमप्रभामें धूमकी सी छवि है । तमःप्रभाकी कान्ति अन्धकारके से रंगको लिये हुये है । गाढ अन्धकारकीसी शोभाको धार रही महातमःप्रभा है । अन्धकार या प्रकाशके साथ दुःखका, सुखका, कोई अन्वय व्यतिरेक नहीं है । अन्धकारमें भी विशेष आनन्द आ सकता है। कचित् प्रकाशमें भी जीव
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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