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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २८१ वेदनाके मारे छट पटाता रहता है । अंधेरेमें कई जीव कूएमें गिर पडते हैं, तो दीपककी ज्योतिमें भी अनेक पतंग कीट अपने प्राणोंको होम देते हैं । आचार्य महाराजने उन भूमियोंमें जैसी कांति है, उसका प्रतिपादन कर दिया है । सभी पौद्गलिक पदार्थोसे मन्द या तीव्र कांति अवश्य निकलती रहती है। यानी इनका निमित्त पाकर वहां भरे हुये पुद्गलस्कन्धोंका वैसा चमकीला परिणाम हो जाता है। यदि घरकी पोलमेंसे पुद्गलोंको कथमपि निकाल दिया जाय तो प्रकाशक द्वारा प्रकाश नहीं हो सकेगा। क्योंकि वे पुद्गल ही तो प्रकाशित होकर चमकते थे । सुधा ( कलईसे ) पुते हुये कमरे और काले हो रहे रसोई घरमें रात या दिनको बैठकर उनकी भूरी, काली, कान्तिओंका स्पष्ट अनुभव हो जाता है । अतः स्वकीय प्रभा अनुसार भूमियों के सात नामोंकी योजना हो रही है। तमःप्रभेति विरुद्धमिति चेन, तत्स्वात्मप्रभोपपत्तेः। अनादिपारिणामिकसंज्ञानिर्देशाद्वेष्टगोपवत् रत्नप्रभादिसंज्ञाःप्रत्येतव्याः। रूढिशद्धानामगमकत्वमवयवार्थाभावादिति चेन्न, सूत्रस्य प्रतिपादनोपायत्वात्तेषामपि गमकत्वोपपत्तेः। यहां वैशेषिककी शंका है कि तमः तो अन्धकार है और प्रभा प्रकाश है, अन्धकारके होनेपर प्रभा नहीं और प्रभाके होनेपर अन्धकार नहीं सम्भवता है । यों विरोध हो जानेसे छठी पृथिवीका नाम तमःप्रभा यों कहना विरुद्ध है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उन अन्ध. कार या महा अन्धकारके अपनी अपनी निजप्रभाकी सिद्धि हो रही है । केवल धौली, पीली, चमकको ही प्रभा नहीं कहते हैं । किन्तु सम्पूर्ण पौद्गलिक पदार्थों में अपनी अपनी काली, धूसरी, आदि प्रभायें प्रसिद्ध हो रही हैं । तभी तो इस काले मनुष्यकी छवि चिकनी काली है और अमुकके काले शरीरकी लौन रूखी है। काली लोहितमणि या डामर अथवा वर्षाकालकी अमावस्या रात्रिकै अन्धकारमें प्रभा दृष्टिगोचर हो रही है, अन्धकार तेजो भाव पदार्थ नहीं किन्तु पौद्गलिक है । अन्धकारकी छविसे कति. पय पदार्थ काले हो जाते हैं। अन्य भी कई नवीन नवीन परिणाम अन्धकार करके साध्य हैं। तसवीर उतारनेवालोंसे पूछियेगा । दूसरी बात यह है कि अनादि कालसे तिस प्रकारके हो रहे परिणामका अवलम्ब पाकर इन भूमियोंका रत्नप्रभा आदि नाम निर्देश हो रहा है, जैसे कि किसी ब्राह्मण या क्षत्रिय धार्मिक पुरुपने पुत्र का नाम अपना अभीष्ट गोप या गोपाल रख लिया । इसमें शद्बके अर्थ माने गये गायको पालनेकी अपेक्षा नहीं है अथवा चौमासेके प्रारम्भमें लाल मखमली कीडोंको इन्द्रगोप या रामकी गुडिया कह देते हैं, सौधर्म आदि इन्द्रोने उन कीटोंको विशेष रूपसे पाला नहीं है। हां, कोई कोई मनुष्य मेघको भी इन्द्र कह देते हैं । मेघके वरसनेपर वे मखमली कीडे सम्मूर्छन उपज जाते हैं। केवल इतना ही निमित्त पाकर उन कीटों का इन्द्रगोप नाम कह दिया जाता है। इसी प्रकार रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, आदि संज्ञायें समझ लेनी चाहिये । यहां किसीका आक्षेप है कि यों रत्नप्रभा आदि रूढि शबोंको पदके अवयव बन रहे प्रकृति, प्रत्ययके नियत अर्थोकी घटना नहीं होनेसे भेदकी सिद्धिमें गमकपना नहीं है । अर्थात्-जैसे पाचक, पाठक, पालक, पादप, पानक, आदि शवोंके अवयवोंका 96
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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