SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके वही लोकके मध्यवर्ती आठ प्रदेशोंकी आकृति (हुलिया) है। उसको नवयुवती गायके स्तनोंकी या बडे अंगूरकी उपमा देना तभी तक शोभता है, जबतक कि दार्टान्त समझमें नहीं आवे । दान्तिके समझ लेनेपर तो वे उपसायें देना अधिक महत्वका नहीं समझा जाता है। आचार्य महाराजने एक स्थानपर लिखा है कि अन्धे पुरुषके सन्मुख क्षीरान (खीर ) की शुक्लताको बतानेके लिये बगुलाकी उपमा देना और बगुलाका ज्ञान कराने के लिये अपने मुडे हुये हाथको अन्धेके हाथमें पकडा कर समझाना, किंचित् काल ही शोभा देता है । एक बात यहां यह भी समझ लेनी चाहिये कि लोकाकाशकी दक्षिण, उत्तरवाली भीतें एकदम सीधी चौदह राजू ऊंची है । अतः दक्षिण, उत्तर; कालाणुओं या धर्मद्रव्य अथवा बातवलयकी भित्तियां चिकनी सपाट हो रहीं सीधी हैं, खरदरी नहीं हैं । किन्तु पूर्व, पश्चिममें क्रमसे घटना या बढना होनेसे चिकनी भीत नहीं हो पायी है । छह पैलदार विना कटी ईंटोंसे यदि घटती बढती हुई भित्ति बनायी जाती है तो उसमें ईंटोंके कोंब निकले रहते हैं । उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम लोकाकाशमै परमाणुओंकि कोन निकल रहे समझ लेने चाहिये । लोकमें ठसाठस भरी हुई कालाणुओंकी रचनाका भी यही क्रम है। लोक बराबर लम्बे, चौडे, ऊंचे, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका आकार भी लोकके नीचे ऊपर और दक्षिण उत्तरमें सपाट चिकना सरीखा है । किन्तु पूर्व, पश्चिमकी घटाई बढाई खरदरे धर्मद्रव्यके भी जीनाकी सीढियोंके समान असंख्याते पैल निकले हुये हैं। पुद्गल परमाणु, कालाणु, और आकाशके कल्पित प्रदेशकी रचना छह पैलवाली बर्फी के समान एकसी है। जगत्में सबसे छोटा आकार परमाणुका है, जो एक प्रदेशी है और सबसे बडा आकार अनन्तानन्त प्रदेशी आकाशका है। दोनोंका सांचा एकसा है। सुदर्शन मेरुका भूमिमें गढा हुआ एक हजार योजन निचला भाग चित्रा पृथिवीमें ही गिना जाता है। अतः सात राजू लम्बी एक राजू चौडी हजार योजन गहरी चित्रा पृथिवीके सबसे निचले भागमें ठीक बीचके चार प्रदेश और वज्राके सबसे ऊपरले भागमें ठीक बीचके चार प्रदेश यों मिलाकर आठ प्रदेश लोकका मध्यभाग है । चौदह राजू ऊंचे लोकको ठीक बीचसे काट देनेपर चित्राके निचले चार प्रदेशोंके समतलसे प्रारम्भ कर ऊपरले सात राजू ऊंचे या एकसौ सेंतालीस घन राजू भागको ऊर्ध्वलोक कहते हैं। तथा वज्रासम्बन्धी उपरिम चार प्रदेशोंके समतलसे प्रारम्भ कर सात राजू नीचेका या एकसौ छियानवै घन राजूवाला भाग अधोलोक समझा जाता है । मध्यलोकके लिये कुछ भी स्थान नहीं बचता है तो भी मध्यलोकसे या मध्यलोकके मध्यम पैंतालीस लाख लम्बे चौडे ढाई द्वीपसे मोक्षमार्ग चालू है। विकलत्रय या असंज्ञी, संज्ञी, तिर्यंच भी मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं । अतः ऊर्ध्वलोकके निचले भागमेंसे सात राजू लम्बे एक राजू चौडे और सुमेरुकी उच्चता बराबर एक लाख चालीस योजन ऊंचे भागको ( कर्ज ) लेकर मध्यलोक मान लिया गया है। श्री उमास्वामी महाराज इस तृतीय अध्यायमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन करेंगे । तहां प्रथम ही अधोलोकका वर्णन करनेके लिये उपक्रमकारक सूत्रको रचते हैं।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy