SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २७३ द्वितीयाध्यायकी विषयसूची इस द्वितीय अध्याय के प्रकरणोंकी सूची इस प्रकार है कि प्रथम ही श्री विद्यानन्द स्वामीने औपशमिक आदि भावोंको युक्ति और दृष्टान्तके बलसे बढिया साध दिया है । अतीन्द्रिय कर्मो के उद1 यको स्पष्ट समझा दिया है। उक्त भाव जीवके ही हो सकते हैं । प्रधान आदिके नहीं । मोक्षमें भी कुछ भाव पाये जाते हैं । पुनः लक्षणके ऊपर अच्छा विचार करते हुये अर्थक्रिया, सादृश्य, वैसादृश्य, को साधकर आत्माको अनादि, अनन्त, सिद्ध कर दिया है । चार्वाक के मतका प्रत्याख्यान कर जीवका तदात्मक लक्षण उपयोग ही करना पर्याप्त बताया है । नाना जीव अपेक्षा बारह प्रकार के उपयोगों अथवा एक जीव अपेक्षा उनमेंसे किसी एक उपयोगको लक्षण बनाते समय लक्ष्य जीव कितना समझा जाय, इस बातका बहुत अच्छा स्पष्टीकरण कर दिया है। जीवके भेदोंका निरूपण करते समय एकत्व प्रवादका निराकरण करते हुये संसारी, असंसारी, तथा अयोगकेवली सभी जीवोंका संग्रह कर लिया गया है । आत्माके व्यापकत्वका खण्डन कर एकेन्द्रिय जीवों को युक्ति और आगमसे साध दिया है । ज्ञानका अत्यन्त अपकर्ष भस्म आदि जड पदार्थोंमें नहीं, किन्तु एकेन्द्रिय जीवोंमें है। पांच इन्द्रियों के भेद, प्रभेदको युक्तिपूर्वक साधते हुये छटे नोइन्द्रिय मनके भी उसी प्रकार भेद हो रहे बतला दिये हैं । तत्पश्चात् - इन्द्रियों के विषय दिखलानेमें नवीनताको लाते हुये इन्द्रियोंके स्वामी जीवों की युक्तिपूर्ण सिद्धि की है। संज्ञी जीवोंकी संज्ञाका विचार कर द्रव्यमनको साधा है । प्रथम आन्हिकको समाप्त करते हुये औपशमिक आदि भावोंमें नयभंगी जोड दी है । 1 इसके आगे द्वितीय आन्हिकमें आत्मा के व्यापकत्वका निराकरण कर आत्माका यहां वहां गमन करना पुष्ट कर दिया है। ईश्वर के ज्ञानकी नित्यता, अनित्यतापर चोखा विवार चलाया है । जीवोंकी आकाशप्रदेश श्रेणी अनुसार गतिके छह प्रकार प्रक्रम बताकर लोक के चौकोर संस्थान या गोल रचनापर आक्षेप करते अनाहारक अवस्था बतायी है । जन्म या योनिके कारण होरहे कर्मोकी विचित्रतापर प्रकाश डालते हुये पुनः गर्भ, उपपाद, सम्मूर्छन जन्मके अधिकारी जीवों के साथ उद्देश्य दलमें एवकार लगाकार अनिष्टकी व्यावृत्ति कर दी गयी है | शरीरों की रचनाका कारण कार्मणशरीरको बताते हुये नामकर्मके वैचित्र्य की प्रशंसा की गयी है । उत्तरोत्तर शरीरों में अधिक परमाणुओं के होते हुये भी सूक्ष्म संस्थानको युक्तियोंसे साध कर कर्मको पौद्गलिक बतला दिया है । बौद्ध, वैशेषिक, चार्वाकोंके कल्पित शरीरों का निरास कर पांच ही शरीर नियत किये गये हैं । धाराप्रवाह रूपसे तैजस, कार्मण, का अनादिसम्बन्ध प्रसाध कर एक समयमें पांचों शरीरों का असम्भव बता दिया गया है । तैजस शरीरके निरुपभोगपन के स्पष्ट कथन की आवश्यकता नहीं समझी गयी है। शरीरों को विधेय दलमें डाल कर गर्भ, संमूर्च्छनज आदि उद्देश्य दलोंको लक्षण सरीखा बनाते हुये अच्छा घटा दिया है | शरीरोंका परस्पर भेद सिद्ध करने के लिये I 35 लक्षणके फल इतर व्यावृत्ति होने को निर्दोष हेतु दिये गये हैं । आहारक
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy