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________________ २७२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक मनुष्य, आदि जीवोंका तत्काल मध्यमें मरण होना भी देखा जाता है और जिन जीवोंके शरीर परिपूर्ण आयुको भोगनेके लिये प्रतिनियत हो रहे हैं, उन जीवों का जीवित रहना भी देखा जाता है । भावार्थ-इस सूत्रमें कहे गये देव आदि जीवोंकी तो अपमृत्यु होती नहीं है । किन्तु कर्मभूमिमें भी अनेक जीव ऐसे हैं जिनको कि अपमृत्यु होजानेके कतिपय कारणोंका योग मिल जानेपर भी विशिष्ट आयुका संसर्गबल बना रहनेसे वे नहीं मर पाते हैं । तिखने घरके ऊपरसे गिर पडना, गोली लग जाना, सर्प द्वारा काटा जाना, तोपसे उडाये जानेका अवसर मिल जाना, राजाज्ञा अनुसार भूखे सिंह के पिंजरेमें प्रवेश कर जाना, भीत गिर जाना, नदीमें डूब जाना, आदि अपमृत्यु कारणोंका प्रकरण मिल जानेपर भी कई पुण्यशाली जीव मरनेसे बाल बाल बच जाते हैं । अखण्ड जीवदया, परोपकार आदि विशेष कारणोंस उपार्जित किये पुण्यविशेषका साथी विशिष्ट आयुःकर्म ही यहां बचानेवाला है। हां, तिस प्रकारका पुण्य या नारकीयोंकासा विलक्षण पाप जिनके पास नहीं है, ऐसे असंख्य जीवोंकी आयुका बाह्य कारणों द्वारा मध्यमें विच्छेद भी हो सकता है। तदेवं युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धोनपवर्येतरायुर्विभागः सूक्त एव । इति द्वितीयमान्हिकम् । तिस कारण इस प्रकार सर्वज्ञ आम्नायसे चले आरहे सूत्रवचन अनुसार श्री विद्यानन्द स्वामीने युक्ति और आगमप्रमाणसे अविरुद्ध होरहा अनपवर्त्य और सापवर्त्य आयुका विभाग बहुत अच्छा ही कह दिया है । यहांतक द्वितीय अध्यायका दूसरा आन्हिक परिपूर्ण हुआ। स्वं तत्त्वं लक्षणं भेदः करणं विषयो गतिः। जन्मयोनिर्वपुर्लिंगमहीनायुरिहोदितम् ॥१॥ इस दूसरे अध्यायमें श्री उमास्वामी महाराजने जीवके निज तत्त्व पांच औपशमिकादिक भावोंका निरूपण किया है, जीवके लक्षण उपयोगका कथन किया है, उस उपयोगके भेदों या जीवके संसारी, मुक्त, पृथिवीकायिक, आदि भेदोंका प्ररूपण किया है, ज्ञानके करण हो रहे द्रव्य इन्द्रिय, और भाव इन्द्रियों तथा उनके स्पर्श आदि विषयोंकी निरूपणी की है, नवीन शरीरको ग्रहण करनेके लिये या मोक्ष जानेके लिये हो रही जीवकी गतिका वर्णन किया है । पश्चात् संसारी जीवके तीन जन्म, नौ योनियां, पांच शरीर और तीन लिंगोंका सूत्रण करते हुये स्वामीजीने आयुका हास नहीं कर पूर्ण आयुको भोगनेवाले जीवोंकी प्ररूपणा की है। इति श्रीविद्यानंदि आचार्यविरचिते तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥२॥ इस प्रकार सर्वज्ञकल्प श्री उमास्वामी महाराज विरचित तत्त्वार्थसूत्रोंके ऊपर श्री विद्यानन्दि आचार्य महाराज द्वारा विशिष्टरूपसे रचे गये श्लोकवार्तिकालंकार नामक महान् प्रथमें दूसरा अध्याय समाप्त हुआ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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