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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रमाणप्रमेयाव्यवस्थानाच्चायं बाध्यते । शक्यं हि वक्तुं विवादाध्यासितः प्रमाता प्रमाणरहितः शरीरित्वात् सन्निपाताद्याकुलवत् प्रमेयस्य वा न परिच्छेत्ता तत एव तद्वदिति । ततः प्रमाणप्रमेयव्यवस्थितिं कुतश्चित्स्वीकुर्वन् सर्वज्ञादिव्यवस्थितिं स्वेष्टविभागसिद्धिं वा नानपवर्त्यस्येतरस्य वायुषः प्रतिक्षेपं कर्तुमर्हति तस्य प्रतीतिसिद्धत्वादिति दर्शयति । चौथी बात यह कि यह आक्षेपकार ( पक्ष ) प्रमाण और प्रमेयोंकी अव्यवस्था हो जाने से ( हेतु ) शून्यवादी के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) स्वयं बाधित हो जाता है ( साध्य ) । देखिये । उसके समान हम भी अनुमान गढकर यों कह सकते हैं कि तुम्हारा अभीष्ट हो रहा किन्तु इस समय हमारे तुम्हारे मध्यवर्ती विवादमें पडा हुआ प्रमाणका कर्त्ता आत्मा ( पक्ष ) प्रमाणज्ञानसे रहित है ( साध्य ) शरीरधारी होनेसे ( हेतु ) सन्निपात, सर्पदंश, अपस्मार ( मृगी ) मूर्च्छा आदिसे आकुलित हो रहे मनुष्य के समान अन्वयदृष्टान्त ) । अथवा दूसरा अनुमान यों लीजिये कि विवादप्राप्त आत्मा (पक्ष) घट आदि प्रमेयोंका परिज्ञापक नहीं है (साध्य) उस ही कारणसे अर्थात् शरीरधारी होनेसे ही ( हेतु ) उन्हीं सन्निपात आदिसे ग्रसित हो रहे मनुष्यों के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इत्यादिक चाहे जितने असत् कटाक्ष उठाये जा सकते हैं । किन्तु यह अशिष्ट आचार प्रामाणिकपुरुषोंको शोभा नहीं देता है । समीचीन हेतुओद्वारा स्वपक्षसाधन करना या परपक्ष दूषण देना वादी, प्रतिवादियों को शोभता है । तिस कारण से यह आक्षेपकार यदि प्रमाण या प्रमेयोंकी व्यवस्थाको अथवा प्रमाता या प्रमेयकी व्यवस्थाको यदि किसी भी प्रमाणसे स्वीकार कर रहा है और सर्वज्ञ, वीतराग, व्यापकपन आदिकी व्यवस्थाको यदि अभीष्ट कर रहा है तथा अपने इष्ट तत्त्वों के विभागकी सिद्धिको यदि अभिमत कर रहा है तो ऐसी दशा में नहीं ह्रास होने योग्य या उससे न्यारा ह्रास होने योग्य आयुःका खण्डन करनेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है । क्योंकि किसी किसी जीवकी आयु मध्य हा 1 योग्य नहीं है तथा किसी किसी प्राणीकी आयु (उम्र) ह्रास होने योग्य है । यों उस आयुको प्रमाणसिद्ध प्रतीतियों द्वारा साधा जा चुका है। इसी बात को श्रीविद्यानन्द स्वामी मालिनी छन्दद्वारा वार्त्तिक में दिखलाते हैं। इति सति बहिरंगे कारणे केपि मृत्योर्न मृतिमनुभवति वायुषो हान्यभावे । ज्वलित हुतभुगंतःपातिनां पंचतापि । प्रतिनियततनूनां जीवितस्यापि दृष्टेः ॥ ५ ॥
इस प्रकार लोक में कोई कोई नारकी, देव, भोगभूमियां, आदि जीव तो अपमृत्युके बहिरंग कारण, शस्त्रघात, भय, आदिके होनेपर भी अपमृत्युके अन्तरंगकारण मानी गई आयुः कर्मकी उदीरणा नहीं होते सन्ते अपने उपार्जित आयुः की हानि नहीं होनेपर मृत्यु ( अपमृत्यु ) से मध्यमें ही मरण हो जानेका अनुभव नहीं कर पाते हैं । तथा ज्वाजल्यमान अग्नि के भीतर पड जानेवाले कीट, पतंग
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