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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
करण कर दिया है । प्रतिनारायण के अमोघ माने जा रहे शस्त्रकरके नारायण द्वारा प्रतिनारायणका खण्डन कर दिया जाता है । इस प्रकार आक्षेपकार द्वारा अपने इष्ट हो रहे अल्पआयुवाले और दीर्घ आयुवाले जीवोंके दो विभागोंकी सिद्धि करना भी उस अनपवर्तनीय आयुवाले जीवोंको सापवर्त आयु उक्त साधनेवाले और सापवर्त आयुवाले प्राणियोंकी आयुको ह्रासरहित साधनेवाले अनुमानोंको भले प्रकार बाध देता है। यों अपने इष्ट विभागकी सिद्धि उसीकी प्रबाधिका हो जाती है। . सर्वज्ञादिविरोधाचासौ बाध्यते तथादि-विवादापनः पुरुषः सर्वज्ञो वीतरागो वा न भवति शरीरित्वादन्यपुरुषवत् वेदार्थज्ञो वा न भवति जैमिन्यादिस्तत एव तद्वत् विपर्ययप्रसंगो वेति प्रत्यवस्थानस्य कर्तुं शक्यत्वात् ।
तथा वह आक्षेपकारका निस्सार अभिमत तो सर्वज्ञ, व्यापक आत्मा या सत्कर्मसे स्वर्गप्राप्ति आदि स्वीकृतियोंसे विरोध आ जानेके कारण भी बाधित हो जाता है। उसी बातको यो स्पष्टरूपसे कहते हैं कि बौद्धों करके माना गया बुद्ध या सांख्यों द्वारा माना गया कपिल अथवा और भी विवादमें पडा हुआ पुरुष ( पक्ष ) सर्वज्ञ अथवा वीतराग नहीं है ( साध्य ) शरीरधारीपना होनेसे ( हेतु ) अन्य रथ्या पुरुष, या किसान आदि मनुष्यों के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । तथा मीमांसक पण्डित तो जैमिनि, मनु, आदि पुरुषोंको वेदके अर्थका ज्ञाता स्वीकार करते हैं। उनके ऊपर अनुमान द्वारा यह कटाक्ष किया जा सकता है कि जैमिनि, मनु, याज्ञवल्क्य आदिक पुरुष (पक्ष ) वेदके अर्थको जाननेवाले नहीं हैं ( साध्य ) उसी शरीरधारीपन होनेसे ( हेतु ) प्रामीण पुरुषोंके समान ( वही पहिला अन्वयदृष्टान्त ) । नैयायिक पण्डित आकाश, काल, दिशा, आत्मा, इन द्रव्योंको व्यापक मानते हैं । उनके ऊपर भी यों अनुमान बनाकर फेंका जा सकता है कि आत्मा या आकाश (पक्ष ) व्यापक नहीं है ( साध्य ) द्रव्य होनेसे ( हेतु ) घट, पट, आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त) एवं घट पट आदि पदार्थ अनित्य नहीं हैं ( प्रतिज्ञा वाक्य ) द्रव्य होनेसे ( हेतु ) आकाशके समान ( अन्वयदृष्टान्त )। मीमांसकोंके ज्योतिष्टोम आदि शुभकर्म ( पक्ष ) स्वर्गको देनेवाले नहीं हैं ( साध्य ) कर्म होनेसे ( हेतु ) कलंजभक्षण, चोरी करना, मनुष्यवध आदि कुकृत्यों के समान ( अन्वयदृष्टान्त )। अथवा विपरीत हो जानेका भी प्रसंग प्राप्त होगा । अर्थात्-रथ्या पुरुष ( पक्ष ) सर्वज्ञ है ( साध्य) शरीरधारी होनेसे ( हेतु ) बुद्ध, कपिल आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त )। तथा ग्रामीण पुरुष भी शरीरधारी होनेसे जैमिनि, आदिके समान वेदार्थोका ज्ञाता है । एवं घट, पट, आदि भी द्रव्य होनेसे आकाशके समान व्यापक क्यों नहीं मान लिये जांय ? मीमांसकोंके अशुभ अनुष्ठान भी अग्निष्टोम आदिके समान स्वर्गप्रापक हो जाय । यों आक्षेपकारके ऊपर पूर्वोक्त प्रकार असद् उत्तररूपसे प्रत्यवस्थान ( जाति ) किया जा सकता है। जैसे कि उन्होंने विना सोचे समझे हम जैनोंके ऊपर दो अनुमान स्वरूप अंडउआ ( एरण्ड ) की तोप लगा दी थी, जो कि फुस्स होकर रह गयी। परिणाम कुछ नहीं निकला, व्यर्थमें अपयश बीचमें भोगना पडा ।